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________________ त्रिलोकगार भाषा:११८ ऊपर तथा नीचे खण्ड नं. ३ एवं ४ को पलट कर रखना चाहिये। नया इसी प्रकार पडतं. के ऊपर-नीचे खण्ड ने. ५ व ६ को पलट कर रखने से ३ राजू चौड़ा और राज ऊँचा पूर्ण स्तम्भ बन जाता है, जिसका क्षेत्रफल ३ x ७ = २१ वर्ग राज प्रान होता है। पिनष्टिः सर्वलोक :-- पिनादि का अर्थ :-पिनष्टि का अर्थ पड करना है । अतः अलोक में खड़ी की रचना द्वारा क्षेत्रफल ज्ञात करने को पिनष्टि क्षेत्रफल कहते हैं। पिनष्टि की रचना !-मध्व लोक में मर्वप्रथम स्वर्ग युगलों की रचना वारस खट्र करना चाहिये । पुनः अस नाड़ी से बाहर पूर्व व पश्चिम को और एके एक राजू जाकर ऊपर-नीचे की ओर व करने से उन्हीं स्वर्ग युगल खण्डों के पूर्व दिशा की ओर त्रिकोणादि आकार वाले ११ खण्ड तथा समकोण आयताकार पार खण्ड हो जाते हैं । इमी प्रकार इतने ही खण्ड पश्चिम दिशा में भी हो जाते हैं। ऊध्व लोक की भूमि ५ राजू और मुख एक राज है। भूमि में में मुख घटाने पर । राजू अवशेष रहते हैं, इसमें ऊँचाई आदि का गुणा करने में अवलोक की उपरितन नौ भूमियों का व्यास कमश: ,३ ,७,२३, "और है। -- artan -- राज +-- 7 .
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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