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पाथा । १३६ लोकसामान्याधिकार
१४७ गायार्थ :-वहाँ (दक्षिणोत्तर में सप्तम पृथ्वी से मध्यलोक पर्यन्त ) दोनों पाश्र्व भागों का क्षेत्रफल जगत्पतर को ६०० योजनों से गुणित कर ७ के वर्ग (R) से भाग देने पर प्राप्त हो जाता है ॥१३॥ विशेषार्थ:-उपयुक्त गाथा में । २५
। २५ x ६ x १४ X २ ६०० योजन क्षेत्रफल प्राप्त हुआ था। इसे जगत्त्रतर घरूप बनाने के लिए ४९ मे गुणा कर ४९ से हो भाग देना चाहिए । अर्थात् ४६x६०० हुश्रा । यहाँ ४९ जगरप्रनर के स्यानोय है क्योंकि ७ x ७ = ४९ वर्ग राजू = जगातर होता है । अतः जगत्प्रतर ४ ६०० क्षत्रफल दोनों पाश्वभागों का प्राप्त हया।
अथोप्नलोकपिरन्ननु चागुकानयाभार:
माउड्ढरज्जुसेढी जोयणचीहस प वासभुजवेहो । घम्होति पुनभवरे फलमेदं चद्गुणं सब्बं ।।१३६।। अधं चतुर्थरज्जुश्रेरिणः योजनचतुदंश घ व्यासमुजवेधः ।
ब्रह्मान्तं पूर्वापर फलमेतत् चतुगुणम् मर्वम् ॥१३६।। पाउड्ढ़ । अर्धवसुध : रज्जुश्रेरिण ७ योजनधतुर्दश १४ च ग्यासमवेषा ब्रह्मलोकपर्यन्त पूर्वा. परे फलमेतमजनुगुणं सर्व भुजकोटोत्यानेयम् ॥१३६॥
पूर्व पश्चिम अपेक्षा अवलोक के चारों पाश्वभागों के वातवलयों से व क्षेत्र का क्षेत्रफल
गाया :-तियरलोक से ब्रह्मलोक पर्यन्त पवनों की ऊँचाई ३३ राजू है । इसीका नाम व्यास है। यहा इपे कोटि भी कहा है । श्रेणो अर्थात् ७ राजू को भुजा है और पत्रनों की मोटाई १४ योजन प्रमाण है । इन तीनों का परस्पर गुणा कर, फिर ४ से गुणा कर देने पर ( चार क्षेत्र ) अध्व लोक में पूर्व व पश्चिम वातवलयों से रुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है ।।१३६।।
विशेषार्थ :-ऊव लोक पूर्व और पश्चिम की ओर मच ७ राजू है। यह भुजा है। मध्यलोक में अर्ध ऊध्र्वलोक (ब्रह्म स्वर्ग ) पर्यन्त ३६ राजू ऊंचा है। यह कोटि है। तीनों वातवलय लियंग्लोक के समीप १२ (५ + + ३ ) योजन और ब्रह्म स्वर्ग के समीप १६ (७ + ५ + ४ ) योजन मोटें हैं । वातवरलयों की मोटाई का औसत ( १६ + १२ = २८ : २ च १४ १४ योजन है अत: x x V =४९ ४७ अर्थात् ४९ वर्ग राजू x ७ राजू प्राप्त हुआ। क्योंकि ४१ जगत्प्रतर स्वरूप है अत: अर्घ अवलोक के एक दिशा के वाजवलय का क्षेत्रफल जगत्पतर x ७ प्राप्त होता है, इसलिए दोनों दिशाओं के पूर्ण ऊर्वलोक ( चारों भागों ) के वातवलयों से बद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल - जगत्प्रतर x x x = जगत्प्रतर x २८ प्राप्त होता है ।