________________
भाषा । ७६७-७६५
नपतिये ग्लोकाधिकार
६०३
"सुहोणं विष्कम्भं" गाथा ७६० से ७६६ तक अर्थात् सात गाथाओं द्वारा किया गया है, उसी प्रकार भरत आदि क्षेत्रों और हिमवन् आदि पर्वतों में भी लगा लेना चाहिए ।
अथ दक्षिण भरत विजयार्घोत्तर भरत क्षेत्राणां बालानयने करणसूत्रमाहरूप्पगिरिवीण मरइव्वामदलं दक्खिणभरहह ।
गजुद णमसरचर भरद्दजुदं मरहखिदिवाणो ॥ ७६७ || रूपनिरिहीन भरत व्यासवलं दक्षिणाधं भरतेषुः ।
नगयुते नगशरः उत्तर भरतयुते भरत क्षेत्रवाणः ॥ ७६७ ।।
रूप । कयगिरिव्यासं ५० मरतध्यासे ५२६१३ होतयित्वा ४७६१४ मर्धीकृते २३८२ दक्षिणार्थं भरसेषुः स्यात् । पत्र विषयाव्यासे ५० युते सति विद्ययार्थवाणः स्यात् २८८६६ प्रत्रोतर भरतब्यासे २३८२६ युते ५२६ सम्पूर्ण भरत क्षेत्राः स्यात् । उक्तानी बाणत्रयाणां समानछेदेन स्वकीयस्वकीयांशं मेलयेत्
५.४
-:
१६
अव दक्षिण भारत, विजयाधं और उत्तर भरतक्षेत्र के वाण का प्रमाण प्राप्त करने के लिए करण सूत्र कहते हैं
गाथार्थ :- भरत क्षेत्र के व्यास में से रूप्यगिरि ( विजयार्थं ) का व्यास घटा कर अवशेष को आशा करने पर अर्धदक्षिण भरतक्षेत्र के वारण का प्रमाण तथा इसी प्रमाण में विजयात्रं का व्यास जोड़ देने से विजया के वाण का प्रमाण प्राप्त होता है, और इस विजया के बाण में उत्तर भरतक्षेत्र का प्रमाण जोड़ देने से सम्पूर्ण भरतक्षेत्र अर्थात् उत्तर भरत के वाण का प्रमाण प्राप्त होता है । ७६७ ॥
विशेषार्थ :- भरत क्षेत्र का व्यास ५२६ योजन घटा देने पर (५२६४- ५० ) = ४७६ ६६ २३
योजन है। इसमें से विजयाघं का व्यास ५० योजन अवशेष रहे । इन्हें आधा करने पर योजन दक्षिणार्धं भरतक्षेत्र के वाण का प्रमाण प्राप्त हुआ। इस २३८ में विजयार्धं का ५० योजन व्यास जोड़ देने पर २००६ योजन विजयार्धं के वाण का प्रमाण शप्त होता है, तथा इस विजया के बारा में उत्तर भरत का व्यास २३० योजन जोड़ देने से (२०११ + २३८६६ ) = ५२६६६ योजन सम्पूर्ण भरतक्षेत्र अर्थात् उत्तर भरत क्षेत्र के वाण का प्रमाण प्राप्त हुआ । उपर्युक्त तीनों वाणों के अपने अपने अंशों को समान छेद द्वारा मिला देने पर क्रम से ४५३५ और प्राप्त होते है ।
५७५
अथ हिमवदादिपर्वतानां हैमवत्तादिक्षेत्राणां च बाणानयने करणसूत्रमाहferingदीवासो दुगुणो मरहूणिदो य सिहोचि । ससाणा जिऩइसरो सुविदेहदलो विदेहस्स ।। ७६८ ।।