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त्रिलोकसार
पाथा : ५९८
aat हुई जिह्निका ( नालो ) से सिन्धुकूट पर गिरता है। वहीं मे विजया की तिमिस गुफा के उत्त द्वार से प्रवेश करती हुई दक्षिण द्वार से निकलकर दक्षिण भारत के अर्धभाग को प्राप्त होतो हूई शेष ढाई म्लेच्छ खण्डों की १४००० परिवार नदियों के साथ जम्बूद्वीप के कोट के प्रभास द्वार से पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है ।
अथ शेषनदीनां स्वरूपमाह
सारूप्ता दहवित्थारूणचलरुंददल मुवरिं ।
गंतून दक्खिगुचरमा पृच्चवरचलहिं ।। ४९८ ।।
शेष रूयन्ता
विस्तारोनाचलरुन्द्रदलमुपरि ।
गत्वा दक्षिणोत्तरमनुस्पृष्टाः पूत्रपिरजलधिम् ।। ५६८ ।।
ऐसा शेषा रोहिदाद्या हव्यकूलान्ता नखः कोपको यह विस्तारं ५०० | १००० | २००० | २००० | १००० | ५०० द्वि२ प्रष्ट ८ द्वात्रिंशत् ३२ द्वात्रिदा ३२ भ्रष्टकाभिः २ हिमबबादिशलाकाभिर्भरत क्षेत्रप्रमाणे ५२६६ गुणिते सति हिमवदादिपर्वतानां विस्तारः स्यात् । हिम १०५२३३ महा ४२१० निष १६८४२२ मोल १६८४२२४२१० शिख १०४२१३ एतस्मिन्रचलन्द्रे न्यूनथिया ५५२३ | ३२१० | १४८४२ १४८४२ है । ३२१०० । ५५२२३ कृतप्रमाणं हिम २७६५४ महा १६० ७४२१ हे नील ७४२१२ पक्सि १६०५ शिखरि २७६१९ ततपर्वतस्योपरि दक्षिणोत्तराभिमुखं गत्वा धनु पश्चात् पूर्वापरमलपि स्पृरः ॥ ६८ ॥
arter अवशेष नदियों का स्वरूप कहते हैं :
गाथार्थ :- अवशेष रही रोहित से रूप्यकूला पर्यन्त सभी नदियों अपने अपने द्रह्नों के विस्तार से रहित जो पर्वत का विस्तार है उसके अर्धभाग प्रमाण पर्वत के ऊपर जाकर दक्षिणोत्तर के नाभिगिरि को प्राप्त न होती हुई पूर्व और पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती हैं ॥ ५३८ ॥
विशेषार्थ :- अवशेष रही रोहित से रूप्यकूत्रा पर्यन्त नदियों के अपने अपने द्रद्दों का विस्तार क्रमशः ५००, १०००, २०००, २०००, १००० और ५०० योजन है तथा हिमवन् आदि छह पर्वतों की शलाकाएं भी क्रम से २, ८, ३२.३२, ८ और १ है, इन शलाकाओं से भरतक्षेत्र के विस्तार प्रमा को गुणित करने पर क्रमशः हिमवान् आदि पर्वतों के विस्तार का प्रमाण प्राप्त होता है । इन पर्वतों के विस्तार में से क्रमश: द्रद्दों का विस्तार घटा कर अवशेष प्रमाण को आधा करने पर पर्वत के ऊपर नदियों के बहाव का क्षेत्र प्राप्त होता है । यथा- रोहितास्या नदी पद्मद्रह के उत्तर द्वार से निकलकर (५२६५६ २ = १०५२१ - ५०० ५५२१:२) २७६६ योजन हिमवान् पर्वत के ऊपर
=
( उसके तट पर्यन्त ) उत्तर की ओर जाकर हैमवत क्षेत्र के कुण्ड हैमवत क्षेत्र के मध्य स्थित श्रद्धावान् नाभिमिरि को बाधा योजन
में गिरती है। वहाँ से निकलकर छोड़ परिचमाभिमुख होती है ।