________________
रिलोकसा
पाया:२२२-२२३ विशेषा:-ज्यन्तर देव तथा अल्पवि, महद्धिक और मध्यम ऋद्धि के धारक भवनवासी देवों के आवास और भवन क्रमशः चित्रा पृथ्वी के नीचे नीचे एक हजार, दो हजार, बयालीस हजार और एक लाख योजन जाकर हैं ।
यावास मोर भवन में अन्तर:- रमणीक तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के ऊपर स्थित निवासस्थानों को आवास कहते हैं तथा रत्नप्रभा पृथ्वी में स्थित निवासस्थानों को भवन कहते हैं।
रयणप्यहवंकड्ढे भागे असुराण होति भावासा । मौम्मेसु रक्ससाण अवसेमाण खरे भागे ।।२२२॥
रत्नप्रभापडावाघे भागे असुराणां भवन्ति आवासाः ।
भौमेषु राक्षसाना अवशेषाणां स्वरे भागे ॥२२२॥ रमण । भौमेषु यसरेषु, मवशेषाणा नापायीकास्यर्थः । शेषे छायामात्रमेवार्थ: ।।२२२॥
पापा:-रलप्रभा पृथ्वी के पङ्कभाग में असरकुमारों के भवन है; भौमेष अर्थात् व्यन्तरों में केवलराक्षसों के आवास पङ्कभाग में हैं, बशेष भवनवासी एवं व्यन्नरों के बावास खरभाग में है ॥२२२।।
विशेषार्थ:-रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रधानतः तीन भाग हैं। पहले खर भाग में नागकुमारादि नो प्रकार के भवनवासियों के भवन तथा राक्षसों के अतिरिक्त शेष सात प्रकार के व्यस्तरों के आवास है। यह भाग १६००० योजन मोटा है । दूसरा पद्धभाग ८४००० योजन मोटा है और इसमें मसूरकूमारों के भवन और राक्षस देवों ( ध्यन्तर ) के आवास है 1 तीसरा, अन्बहल भाग ८०००० योजन मोटा है, इस भाग में नारको जीव हैं। इदानीमिन्त्रादिभेदमाह
इंदपछिंददिगिदा तेचीससुरा समाणतणुरक्खा । परिसचयआणीया पद्दण्णगमियोगकिन्धिसिया ||२२३।।
इन्द्रप्रतीन्द्रदिगिम्दाः त्रयस्त्रिशासुराः सामानिकतानुरक्षको।
परिषस्त्रयानीको प्रकीर्णकाभियोग्यविधिका॥२२३।। एवं । छायामात्रमेवार्गः ॥२२॥ अब इन्द्रादिक के भेद कहते हैं -
पापा:--इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र, नायस्त्रिशदेव, सामानिक, तनुरक्षक, तीन प्रकार के परिषद, अनीस, प्रकीर्णक, भाभियोग्य और किल्विषिक, देवों के ये दस भेद होते हैं ॥२२॥
विषार्थ:-सरल है।