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व्यन्त श्लोकाधिकार
अब व्यन्तरदेवों के नगरों के आश्रयरूपद्वीपों के नाम कहते हैं-
गायार्थः– अञ्जनक, वज्रधातुक, सुवर्ण, मनः शिलक, वस्त्र, रजत, द्विगुलक और हरिताल इन आठ द्वीपों में क्रमशः किम्पुरुषादिक व्यन्तरेन्द्रों के नगर हैं ||२३||
गाय । २८४
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विशेषार्थ :- जिन इन्द्रों का नामोच्चारण पहले किया जाता है वे दक्षिणेन्द्र है और जिनका नामोच्चारण बादमें किया जाता है, वे उत्तरेन्द्र कहलाते हैं ।
आय व्यन्तर कुलों के आठ द्वीप -
अञ्जनक द्वोप की दक्षिण दिशा में किम्पुरुष और उत्तर दिशा में किन्नर इन्द्र के नगर हैं । वष्यधातुक द्वीप को दक्षिण दिशा में सत्पुरुष और उत्तर दिशा में महापुरुष इन्द्र के नगर हैं । सुत्रगं द्वीप को दक्षिण दिशा में महाकाय और उत्तरदिशा में अतिकाय इन्द्र के नगर हैं । मनःशिलक द्वीप की दक्षिण दिशा में गोतरति और उत्तर दिशा में गीतयशा इन्द्र के नगर हैं। वज्र द्वीप की दक्षिण दिशा में माणिभद्र और उत्तर दिशा में पूर्णभद्र इन्द्र के नगर है । रजत द्वीप की दक्षिण दिशा में भीम और उत्तर दिशा में महाभीम इन्द्र के नगर हैं । हिंगुलक द्वीप को दक्षिण दिशा में सुरूप और उत्तर दिशा में प्रतिरूप इन्द्र के नगर हैं । हरिताल द्वीप की दक्षिण दिशा में काल और उत्तर दिशा में महाकाल इन्द्र के नगर हैं । अथ तन्नगरसंज्ञामायामं चाह -
मोदिकं मज्मे पदकतावचम
चरिका । पृव्वादिसु युममा पणपणणयराणि सममाने ॥ २८४॥ भद्रा' मध्ये प्रभकान्तावर्तमध्याः चरमाङ्काः ।
पूर्वादिपु जंबूसमानि पच पच नगराणि समभागे ॥ २८४ ॥
भोमिदं । भमेाः किन्नरस्तदेवाङ्क मध्ये पुरि प्रभकात्वावर्तमध्याः । भीमेन्द्रा घरमाङ्काः पूर्वाविषु जम्बूद्वीपसमानि पञ्च पञ्च नगराणि समभागे ॥ २६४ ॥
अब उन नगरों के नाम और आयाम कहते हैं
गाथार्थ - समभूमि में व्यन्तर इन्द्रों के पाँच पाँच नगर होते हैं। पुर मध्य में होता है और प्रभु, कान्त, आवतं एवं मध्य नगर पूर्वादिक दिवााओं में होते हैं, सबके साथ इंद्र विशेष का नाम जुड़ा रहता है। इन नगरों का आयाम जम्बुद्वीप' सहा है ।। २८४||
विशेषार्थ:- जिस प्रकार जम्बुद्वीप समतल भूमि पर है, भूमि के नीचे या पर्वत के ऊपर नहीं है, उसी प्रकार व्यन्तर देवों के नगर समतल भूमि पर बने हुए हैं। प्रत्येक इन्द्र के पाँच पाँच नगर होते १ राजधाम्य: पिणाचानां पन्च प्रोक्तास्तु नामतः ।
जम्बुद्वीपप्रमाणामच चतुर्वन विभूषिताः ॥ ६९ ॥ ९ विभाग ( लोक विभाग )
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