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पापा । २६०-२६१-१९२
व्यन्तरलोकाधिकार
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विशेषार्थ:-- सोलह इन्द्रों के आठ द्वीप हैं और बत्तीस गणिका महत्तर ( प्रधानमणिकाएं ) हैं । एक एक द्वीप पर दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र दो दो इन्द्र रहते हैं। उनके अपने अपने वनों में अपनी अपनी गणिकाओं के नगर बने हुए हैं, जो ८४००० योजन लम्बे और ६४००० योजन चौड़े हैं। शेष व्यन्तरदेव अनेक द्वीपों और अनेक समुद्रों में रहते हैं।
अथ कुल विशेषमवलम्ब्य निलयभेदमाह-
भृदाण रक्खाणं चउदस सोलस सहस्स भवणाणि । मेसाण वाणपेंसरवाणं अरि गिलवानि ॥२६६६ भूतानां राक्षसानां चतुदंश षोडश सहस्र भवनानि । शेषाणां वानभ्यन्तरदेवानां उपरि निलयानि ॥ २९० ॥
भूवारण | भूतानां तरभागे राक्षसानां पभागे चतुवंश षोडशसहस्र भवनानि शेवाण वानभ्यन्तरदेवानां उपरि मध्यलोके निलयानि संति ॥ २६० ॥
अब कुल भेद की अपेक्षा निलय ( भवन ) भेदों का निरूपण करते हैं
गावार्थ:- भूतों और राक्षसों के भवन क्रमश: चीदह और सोलह हजार हैं और कमशः खरभाग और पङ्कभाग में हैं। शेष वानव्यन्तर देवों के भवन पृथ्वी के ऊपर हैं ||२६||
विशेषार्थ :- रत्नप्रभा पृथ्वी के बर भाग में भूत व्यन्तरदेवों के १४००० भवन हैं तथा पङ्कभाग में राक्षसों के १६००० भवन हैं। शेष जो छह किश्वरादि कुल हैं उनके भवन पृथ्वी के ऊपर मर्थात् मध्यलोक में है ।
अर्थ नीचोपपादादित्र्यन्तरविशेपान् गाथाद्वयेनाह
इत्थपमा विवादादिगुवासि अंतरणिवामी । कुंभंडा उध्यण्णा पुष्पण प्रमाणया गंधा ||२९१ ।। महगंध जग पीदिक मागासुत्रवण्णगाय उक्रुवरि । तिसु दसहत्थ सदस्सं बीससह संतरं सेसे ॥२६२॥
हस्तप्रमाणे नीचोपपादाः दिग्वासिनः अन्तर निवासिनः । कूष्माण्डाः उत्पन्ना मनुत्पन्नाः प्रमाणुका गंधाः ॥२६२॥ महागन्धा भुजगाः प्रीतिका आकाशोत्ववादच उपयुपरि । त्रिषु दशहस्तसहस्राणि विश्वतिसहस्रान्तरं शेषे ।। २९२ ।। पायामात्रमेवार्थः ॥२४१४