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________________ २४४ त्रिलोकसार वाचा : २८८-२८९ विशेषार्थ:-सुधर्मा सभा के दरवाजे की ऊँचाई दो योजन और चौड़ाई एक योजन है। दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र सभी इन्द्रों के नगरों के प्राकार, प्राकार के भीतर स्थित सुधर्मा सभा तथा उस सभा के दरवाजों आदि का प्रमाण समान ही है। अथ तनगरबा वनस्वरूपं निरूपति--- पुरदो गंतूण बहिं चउदिसं जोयणाणि विसहस्से । इगि लक्खायद तहलबासजुदा रम्मवणसंडा ।।२८८।। पुराद्गत्वा बहिः चतुर्दिशं योजनानि द्विसहस्र।। एफलक्षायता: तहलव्यासयुताः रम्यवनसाः ॥२८॥ पुरवो । पुरागत्या बहिश्चल विधातु योजनानि विसहसं कलक्षायताः तदर्धभ्यासत्ता रम्यबनवण्या: ॥२८॥ नगरों के बाहर स्थित वनों का स्वरूप गाथा:-नगर मे दो हजार योजन बाहर जाकर चारों दिशाओं में एक लाख योजन लम्बे और लम्बाई के अघं भाग ( ५० हजार ) प्रमाण चोड़ाई वाले रमणीक वनखण्ड हैं ।।२८८॥ . विशेषार्थ:-नगर से दो हजार योजन दूर चारों दिशाओं में सुन्दर रमणीक बनखण्ड है। इनकी लम्बाई एक लाख योजन और चौड़ाई पत्रास हजार योजन है।। अथ तद्वनस्थितगणिकानगरविस्तारसंख्यादिकं निरूपयति तस्थेव य गणिकाणं चुलसीदिसहस्मविउलणयगणि | सेमाणं भोम्माणं अणेयदीचे समुद्दे य ॥२८९।। तत्रैव च मरिण कानां चतुरशीतिसहनविपुलन गरागि। शेषाणां भीमानां अनेकद्वीपे समुद्रे च ।।२८९।। तत्व । सब बने परिणकानो चतुरशीतिलाहविपुलनगराणि शेवारणा भोमाना पनेकडोपे पोकसमु च नगराणि ॥२८॥ अपने अपने इन्द्र के वनों में स्थित गरिणका महत्तरियों के नगरों का प्रमाण एवं संन्यादि का निरूपण करते हैं गाथार्थ:-अपने अपने इन्द्रों के वनों में स्थित गणिकाओं के नगरों की लम्बाई और चौड़ाई दोनों ५४००० योजन प्रमाण है। शेष श्यन्तर देवों के नगर अनेक दीपों एवं अनेक समुद्रों में हैं ॥ २८ ॥
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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