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________________ व्यन्तर लोकाधिकार अब व्यन्तर लोक का निरूपण करने की इच्छा रखने वाले प्राचार्य व्यन्तरलोक में स्थित चैत्यालयों का प्रमाण बतलाते हुए नमस्कार करते हैं: गाथा:-तीन सौ योजन के वर्ग का जगत्प्रतर में भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो इसके संख्यात भाग प्रमाण व्यन्तर देवों के असंख्यात जिन मन्दिरों को मैं ( नेमिचन्द्राचार्य ) नमस्कार करता है॥२५०।। विशेषाप:-तीन सो योजन की कृति के अंगुल बनाकर जगत्तर में भाग देने पर जो लन्ध प्राप्त हो उत्तनी संख्या प्रमाण व्यन्तर देव हैं। तथा उनके संख्यातवें भाग प्रमाण चैत्यालय हैं जो गणनातीत अर्थात असंख्यात हैं। उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। तीन सौ योजन का वर्ग ( ३०० ४३०.) = ९.०० वर्ग योजन होता है । एक योजन में ७६६.०० अंगुल होते हैं तो १०००० वगं योजनों में कितने अंगुल होंगे ? इस प्रकार राशिक विधि द्वारा अंगुल निकाल लेना चाहिए । “वर्ग राशि का गुणकार एवं भागहार वर्गरूप हो होता है" इस नियम के अनुसार अंगुल स्वरूप गुणकार वर्गात्मक ही होगा । अत: ७६८०.४ ३०.४७६८००.x ३०० प्राप्त हुआ। गुग्यमान और गुणकार राशियों के दसों शून्य भिन्न स्थापित करने पर ७६८४३४ ७६८४ ३ होते हैं। इसमें मे ७६८४७६८ अंगुलों को तीन से भेद देने पर २५६ ४ ३ ४ २५६४३ प्राप्त हुआ। २५६ को २५६ में गुणित करने पर पणट्ठी ( ६५५३६ ) तथा ३ को ३ से गुणा करने पर ९ प्राप्त हए । इस ६ को पूर्वोक्त ६ से गुणित करने पर ८१ लन्ध आया। अतः ६५५३६, ८१ और १० शून्य प्रतरांगुल स्वरूप प्राप्त हुए। एक सूच्यंगुल का चिन्ह २ और सूच्यंगुल के वर्ग का चिन्ह २४२-४ होता है । ६३५३६४१४ १०००००००००० प्रतरांगुलों से जगत्तर में भाग देने पर पन्त र देवों का प्रमाण प्राप्त होता है। कहा भी है कि-२०० योजन के वर्ग का जगन्नार में भाग देने पर व्यन्तर देवों का प्रमाण प्राप्त होता है, और जगत्प्रतर में २५६ अंगुल के वर्ग का भाग देने पर ज्योतिष देवों का प्रमाण प्राव होता है । यदि संख्यात देवों के प्रति एक जिन चैत्यालय है, तो ६५५३६४८१४ १०००००००००० से भाजित जगप्रतर के प्रति कितने जिन रयालय प्राप्त होगे? इस प्रकार ६५५३६ x६१x१०००००००००० प्रतरागुल अथवा ३.० याजन के वर्ग से भाजित जगत्प्रतर के संख्यातवें भाग व्यस्वर देवों के जिन चैत्यालयों का प्रमाण प्राप्त होता है । अर्थात् जगत्प्रतर को ३७. के वगं
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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