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पिलोकसाब
पाषा : ६६१ से १६५ सध्धे । कुण्डले कम च सर्वेषां कुटामा योजनपञ्चशतं ५०० भूमिविस्तार: उसयाच पञ्चशतयोजनानि ५०० तेषां मुक्षव्यासस्तु पञ्चशतार्धपोजनानि २५० ।। ६६० ॥
आगे कुण्डल और रुचक पर्वतस्य कटों का ध्यासादिक कहते हैं :
पायार्थ । कुण्डल गिरि और रुचक गिरि के ऊपर स्थित सम्पूर्ण कटों का भूमि विस्तार पच सौ योजन, उदय पांच सौ योजन और मुख विस्तार उदय का अचं प्रमाण अर्थात् २५० योजन है ।। ६६० ॥
विशेषार्ष:-कुण्डलगिरि के ऊपर स्थित २० कट और रुवक गिरि सम्बन्धी ४४ कट इस प्रकार कुल ६४ ही क टों का भूव्यास अर्थात् जमीन पर क टों की चौड़ाई ५०० योजन मुखव्यास-ऊपर की चौड़ाई २५० योजन और ऊंचाई ५०० योजन प्रमाण है। अथ दीपसमुद्राणामधीशान गाथापचकेनाह--
जंदीवे वाणो अणादरो सुट्टिदो य लवणेवि । घादइखंडे सामी पभासपियदसणा देवा ।। ९६१ ॥ कालमहकाल पउमा पुंडरियो माणुसुत्तरे सेले । चक्खुमसुचक्खुमा मिरिपहधर पुक्खरुवहिम्हि ॥९६२|| वरुणो वरुणादिपहो मझो मनिझमसुरो य पंडुरमो। पुफ्फादिदंत विमला विमलप्पह सुप्पहा महप्पहो ।।९६३॥ फणय कणयाह पूण्णा पुण्णप्पहा देवगंधमहागंधा । तो गंदी गंदियहो महसुमहा य अरुण अरुणपहा ||९६४।। ससुगंध सब्वगंधो अरुणसमुद्दम्हि इदि पहू दो हो । दीवसा पढमो दक्षिणभागम्हि उत्तरे विदियो ।।९६५।। जम्बूद्वीपे वानी अनादरः सुस्थितश्च करणेऽपि । धातकीखण्डे स्वामिनी प्रभासप्रियदर्शनी देवो ।। ६६१ ॥ कालमहाकाली पद्मः पुण्डरीक: मानुषोत्तरे शंले। चक्षुष्ममुचक्षुष्माणो श्रीप्रभधरौ पुष्करोदधौ ।। ३१२ ॥ वक्षणो वरुणादिप्रभो मध्या मध्यमसुर व पाण्डुरः। पुरुषादिदन्तः विमलो विमलप्रभः सुप्रभः महाप्रभः ।। ६६३ ।। कनका कनकाभः पुण्यः पुण्यप्रभो देवगन्धमहागन्धौ। तसो नन्दी नन्दिप्रमः भद्रमुभद्रौ च अरुणः अरुणप्रमः १९६४|