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गिलोकसार
पाषा: १.३ से १५७ से सहित होते हुए नन्दीश्वर द्वीप जाकर प्रत्येक वर्ष की आषाढ, कार्तिक और सारगुन मास की अष्टमी से प्रारम्भ कर पूर्णिमा पर्यन्त निरन्तर दो दो पहर तक पूजा करते हैं।
प्रथम युगल के सौधर्मेशान एवं असुर कुमारों के चमर औच वैरोचन ये चारों इन्द्र प्रदक्षिणा रूप पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर दिशाओं में पूजा करते हैं । अर्थात् पूर्व दिशा में पूजन करने वाले देव जब दक्षिण में आते हैं, तब दक्षिण दिशा वाले देव पश्चिम में और पश्चिम वाले उत्तर में तथा उत्तर दिशा वाले पूर्व में आकर ऐन्द्रध्वज साद महापूजा करते हैं। उपयुक्त ५२ चैत्यालयों का चित्रण निम्न प्रकार है:
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