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पाथा : ६७३ से.
नरतियंग्लोकाधिकार सौधर्म ईशानः अमगे वैरोचनः प्रदक्षिणतः ।
पूपिरवक्षिणोत्तर दिशासु कुर्वन्ति कल्याणं ।। ६७.॥ सम्याव । तेषु तापश्चाश ५२ नगेष्वपि द्वापचाश ५२ जिनालया भवन्ति । तेषु इतरसुरैः भवमत्रयवेवेश्च सहिताः सोधवियो द्वादशकल्पेन्द्राः ॥ ६७३ ॥
गय । गज हमकेसरिषभान सारसपिकहंसकोकगायच मकरशिखिकमलपुष्पक विमानप्रभात समाहदाः ।। ३७४ ॥
दिन्छ । विष्यफलपुष्पहस्सा शास्ताभरणा: समामरानोकाः बावजसूर्या राषाः सन्तो गत्वा ऐन्द्रध्वजाविकल्याणं कुर्वन्ति ॥ ६७५ ॥
परि । प्रतिवर्षमाषाढमासे तथा कातिकमासे फागुनमा चामोत प्रारम्प पूणिमाधिनपर्यन्तमभीक्षणं वो द्वौ प्रहरी स्वस्थसुरैः सह ॥ १७६ ॥
सोह। मोपचारो परोध २६ प्रकि स. पूर्वानरवक्षिणोत्तरबियास कल्याणं पूजा कुर्वन्ति ॥ ६७७ ॥
अब अखतादि प्रत्येक पर्वत के ऊपर एक एक चैत्यालय का प्रतिपादन करते हुए आचार्य उन चंत्यालयों में चतुनिकाय देवों द्वारा काल विशेष में की हुई पूजा विशेष को पांच गाथाओं द्वारा कहते हैं:
गापा:-उन बावन पर्वतों पर बावन हो जिनालय हैं। उनमें अन्य कल्पवासी देवों और भवनत्रिक देवों सहित सौधर्मादि बारह कल्पों के इन्द्र, हाथी, घोड़ा, सिंह, बैल, सारस, कोमल, हंस, चकया, गड़, मगर, मोर, कमल और पुष्पक विमान आदि पर समारूढ़ हो ( अपने परिवार देवों सहित ) हायों में दिव्य फल और दिव्य पुष्प धारण कर प्रशस्त आभरणों, चामरों, सेनाओं, ध्वजारें एवं वादित्रों के शब्दों से संयुक्त होते हुए, नन्दीश्वर द्वीप जाकर प्रत्येक वर्ष को आषाढ, कातिक और फाल्गुन मास की अष्टमी से प्रारम्भ कर पूरिनमा पर्यन्त निरन्तर दो दो पहर तक कल्याण अर्थात् ऐन्द्रध्वज आदि पूजन करते हैं ।। ६७३-७६ ।।
किस प्रकार करते हैं ? :
गाथार्य :-सोधर्मेन्द्र, ईशानेन्द्र, चमर और वेरोचन ये प्रदक्षिणा रूप से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में पूजा करते हैं ।। ६५७।।
विशेषा:-मन्दीश्वर द्वीप के (४+१३+३२)=५२ पर्वतों पर ५२ ही जिनमन्दिर हैं। उनमें अन्य देवों और पवनविक के साथ सोधर्मादि कल्पों के बारह इन्द्र, हाथी, घोड़ा, सिंह, बैल, सारस, कोयल, हंस, चकवा, गा, मगर, मोर, कमल और पुष्पक विमान आदि पर आरूढ़ हो, हाथों में दिश्य फल एवं पुष्प धारण कर प्रशस्त आभरणों, पामरों, सेनाओं, बजाओं एवं वादिनों के शब्दों