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गाथा । ५५५ से १९०
तरतियंग्लोकाधिकार
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नाम की प्रणालिका (नाली) है, जो दो कोस लम्बी, दो कोस मोटी और योजन चौड़ी है। यह वृषभाकाय ( गौमुखाकार ) है। गंगा नदी इसी नाली में जाकर हिमवन् पर्वत से नीचे गिरती है। अथ प्रणालिकाया: वृषभाकारत्वमन्वर्धयति---
केसरिमुहसुदिजिच्मादिही भूमीसपहुदिणो सरिसा । तेणि पणालिया मा घमहायारेति णिहिट्ठा ।। ५८५ ।। केशरिमुखश्चतिजिह्वादृष्टयः भूशीप प्रभृतयः गोसदृशाः ।
तेनेह प्रणालिका सा वृषभाकारा इति निर्दिष्टा ॥ ५८५ || केसरि। मुखश्रुतिजिह्वाइष्टः केसरिसरक्षाः शीर्वप्रमृतयः गोलरक्षास्तेन कारणेनेह मा प्रणालिका वृषभाकारेति निविष्ठा ॥ ५५ ॥
प्रणाली के वृषभाकारत्व को सार्थक करते हैं :
गाचा :--उस प्रणालिका अर्थान् कूट का मुख, कान, जिह्वा और नेत्रों का साकार तो सिंह के सदृश है किन्तु भौंह और मस्तक का आकार गौ के सदृश है; इसी कारण उस नाली को ( मुख्य रूप से ) वृषभाकार कहा गया है ॥ ५८५ ।। अय पतितायास्तस्याः पतनस्वरूप गाथापश्चकेनाइ--
मरहे पणकदिमचलं मुच्चा कहलोवमा दहब्बासा । गिरिमूले दवगाहं कंडं वित्थारसद्विजुदं ।। ५८६ ।। मझे दीमो जलदो जोयणदलमुग्ग मो दुषणवासो । तम्मज्मे बजमओ गिरी दसुस्सेइओ तम्स ।। ५८७ ॥ भूमज्झगो वायो चदुदुगि सिरिगेदमुवरि नव्यासो । चावाणं तिदुगेक्कं सहस्समुदमो दु दुसहस्सं || ५८८ ॥ पणसयदलं तदंनो तदारं ताल वास दुगुणुदयं । सम्वत्थ धरपू णेयं दोणि कवाला य वञ्जमया ।। ५८९ ।। सिरिगिहमीसट्ठियंबुजकण्णियसिंहासणं जडामउलं । जिणममिसेत्तमणा वा मोदिण्णा मत्थर गंगा ।। ५९० ।। भरते पश्चतिमचल मुक्त्वा काहलोपमा दशव्यासा। गिरिमूले दशगावं कुण्डं विस्तारष्टियुतम् ॥ ५८६ ॥ मध्ये द्वीपः जलतः योजनदलमुद्गतः द्विधनष्णसः । तन्मध्ये वनमयः गिरिः दशोत्सेधः तस्य ।। ५८७ ॥