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________________ त्रिलोकसार पाया : ५१ से ५८४ पन । पनसरोवरस्पवनद्वाराज्जमिरा गङ्गा पञ्चशतयोजनान्यत्र हिमति पूर्वमुखं गत्वा पोजमान गंगाकूटममाप्य ॥ ५८२ ॥ वरित । सामाक्षिणमुखं बलिखा व्यावृत्य प्रयोविशतिसहितपश्चशतयोजनानि साधिकशार्षयुतानि वा । अस्य वासना-भरतप्रमाणं यो ५२६ विगुणीकृत्य १०५ तत्र नौग्यास यो को १ अपनीय १०४६ प्रर्षयित्वा ५२३ शेषयोजनं चतुभिः कोशं कृत्वा भक्त्या २१ पागते लब्धे को एक कोष नवीण्यासाय वचाव । पशिष्टं शेष लम्पकको बाधयेत् । ।।। एवं सति पोगरासेवीसेत्यायुक्तमा व्यक्त' भवति । या मितिका प्रमालिका विविधमणिरूपा ॥५८३॥ कोस। जयवीर्घवाहल्या वृषभाकारा कोषसहितषड़योजनान्द्रा सपा प्रतालिकाया गया सा गंगा नदो पतिता ॥ ५८४ ।। गंगा नदी की उत्पत्ति और उसके गमन का प्रकार तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं गावार्थ:-गङ्गा नदी वस्त्रमय मुख से ( उत्पन्न ) निकलकर पांच सौ योजन पूर्व की ओर जादी हुई गङ्गाकूट को न पाकर प्रयोजन पूर्व से दक्षिण की ओर मुड़ कर साधिक अधं क्रोश अधिक पांच सौ ईस योजन आगे जाकर नाना प्रकार के मणियों से रचित, दो कोस लम्बी, दो कोस मोटी और सवा छह गोमन चौड़ी वृषभाकार जिलिका ( नाली ) में जाकर ( हिमवान् पर्वत से ) नीचे गिरती है । ५८२-५८४ ॥ विशेषार्थ :-गङ्गा नदी पाद्रह की पूर्व दिशा में स्थित वनद्वार से निकलकर इसो पर्वत के ऊपर ५.० योजन पूर्व दिशा की ओर जाकर इसी हिमवान पर्वत पर स्थित गंगाकूट को न पाकर अर्ध योजन पहिले हो अर्थाद मधं योजन गंगाकूट को छोड़कर दक्षिण की ओर मुड़कर दक्षिण दिशा में ही ( इसी हिमवान एवंत पर ) साधिक अर्धकोश से अधिक पांच सौ तेईस ( ५२३ ) योजन मागे जाती है। इसकी वासना कहते हैं :-भरत क्षेत्र का प्रमाण ३२६पर योजन है, इसको दूना करने से ( ५२६. ४२)= १०५२१३ योजन हिमवान् पर्वतका विस्तार प्राप्त हुआ। इस पर्वत के ठीक बीच में पद्मद्रह है और गंगा भी पर्वतके ठीक मध्यसे जाती है अबएव पर्वतके विस्तारमें से नदीका ध्यास (६: यो०) घटा कर आधा करने पर ( १०५२११ ----१३)- ५२३ योजन हुए। अवशिष्ट र योजन के कोश बनाने के लिये ४ से गुणा करने पर (1 ) अर्थात् २ कोश प्राप्त हुए। इसमें से एक कोश नदी के व्यास में दे देने पर अर्थात् १ अवशेष रहे इन्हें आधा करने पर (3 मर्थात ५२१ योजन ( गंगा नदी ) दक्षिण दिशा में जाती है। जहाँ गंगा नदी मुड़ी है बहा हिमवान् पर्वत के व्यास में से नदी का व्यास घटा कर अवशिष्ठ का आषा करने पर आधा भाग उत्तर में और आधा दक्षिण में रहा, अत: दक्षिण के इस अध भाग ( ५२३६६ योजन ) को पार करने के बाद हो गंगा को हिमवान् का तट प्राप्त हो गया। हिमवान् के इसी तट पर नाना मणियों के परिणाम रूप जिबिका
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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