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________________ त्रिलोकसार सिद्ध श्वराणां प्रतिमाऽवियोज्या, तत्प्रातिहार्यादि विना तथैव । आचार्य सत्पाठक साधु सिद्ध क्षेत्रादिकानामपि भाववृद्धये ।। १८१ ।। अर्थ :- प्रशस्त हैं लक्षण जिनके, जो भावों की विशुद्धि में कारण हैं, निर्दोष सर्व अवयवों से सहित, नग्न विगम्बर, सुन्दर प्रतिहार्य एवं स्वकीय चिह्न मे समन्वित हैं ऐसे मनोहर अरहन्त बिम्ब का निर्माण करावं | इसी प्रकार भावों को विशुद्धि के लिए प्रातिहार्य विना सिद्धों की ( आगमानुसार ) छाचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं की भी प्रतिमाओं का निर्माण करावें । सिद्ध क्षेत्र आदि की प्राकृतियों की भी स्थापना करें ।। १८०, १८१ ।। ७६० हुए हैं। गाथा : १००३ मे १००८ ३ श्रीपाद सिदार के प्रथम अध्याम में भी कहा है कि : शान्त प्रसन्नमध्यस्थ, नासावस्था विकार एक् । सम्पूर्ण भावरूपानु, विहान लक्षणावितम् ॥ ६३ ॥ द्राविदोष निर्मुक्त प्रातिहार्यमक्षयुक् । J निर्माप्य विधिना पीठे, जिनबिम्बं निवेशयेत् ॥ ६४ ॥ अर्थ :-- शान्त, प्रसन्न, मध्यस्थ, मामाय और अधिकार दृष्टि, सम्पूर्ण भावानुरूप, स्वकीय लक्षण से समति रौद्रादि ( कर व्यादि ) दृष्टि से रहित तथा यक्ष यक्षरणी सहित बिनबिम्ब का निर्माण कराकर विधिपूर्वक वैदिका में विराजमान करें ।। ६३, ६४ ।। लोढ :- उपयुक्त प्रमाण पं० बारेलालजी जैन राजवंध टीकमगढ़ के सौजन्य से प्राप्त सोलुदय कोवित्थड कणयत्थं भागा हु रयणमया । चिवतिया बहुगा बणणयणमणरमणा ।। १००३ ।। तप्रदो जिणभरणं तच्चउदिस विविधकुसुम चड दहगा । दस गाढसयदलायदवासा मणिकणय वेदिजुदा ।। १००४ ।। पुग्दो सुरकीचणमपिपासाद होंति पीहिपा सदुगे । पद दलवासी वप्पुरदो तोरणं होदि ।। १००५ ।। तं मणिथंभगाठियं सुताघंटासुजाल पण्णुदयं । तदलजोषणवासं जिणविक दंवरमणि ।। १००६ ॥ पुग्दो पासाददुगं फलिहादिमसालदारपासगे | मन्मंतरे सद्दयं दलवासं रणसंघडियं ।। १००७ || जं परिमाणं भणिदं पुषगदार म्हि मंडवादीणं । . दक्षिण उत्तरदारे तदद्धमाणं गहदव्वं ।। १००८ ॥
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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