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________________ वैमानिक लोकाधिकार साम्प्रतमितर प्राकार संख्यां तदक्षरं प्रमाणं चाह पाचा : ४६६-५०१ राणं विदिपादपायारा पंचमोति तेरसयं । तेमहि भडकदी चुलमीदी लक्खाणि गंतूर्ण ।। ४९९ ।। नगराणां द्वितीयादिप्राकारा पचमान्तं त्रयोदश । त्रिष्टि: अष्टकृतिः चतुरशीतिः लक्षाणि गत्वा ।। ४९९ ॥ मराणं । नगराणां द्वितीयाविप्राकाराः पचमपर्यन्त यथासंख्यं त्रयोदशलक्षारित विषलक्षापि प्रकृतिलक्षाणि चतुरशीतिलक्षारिण योजनानि गत्वा गरवा तिवन्ति ॥ ४९९ ॥ अब मोर ( इतर ) प्राकारों की संख्या और उनके अन्तराल का प्रमाण कहते हैं ४३३ गामार्थ :- नगर के द्वितीय को आदि लेकर पचम कोट पर्यन्त क्रम से तेरह लाख योजन, सठ लाख योजन, बाठ की कृति [ ६४ लाख योजन ] और चौरासी लाख योजन दूर जा जा कर प्राप्त होते हैं ।। ४९९ ॥ विशेषाय :- इन्द्र के नगर के बाहर चारों ओर पाँच कोट हैं । पहिले कोट से दूसरा कोट १३ लाख योजन [ १०४००००० मी० ] दूर जाकर है। दूसरे से तीसरा कोट ६३ लाख योजन [ ५०४००००० मील ] दूर, तीसरे से चौथा आठ की कृति अर्थात् ६४ लाख योजन [५१२००००० मौल ] दूर तथा चौथे से चित्र कोट ८४ लाख योजन के अन्तराल पर है । अथ तत्तदन्तरालस्थ देवान गाथाद्वयेनाह Hona दिखा पढमे विदियंतरे दु परिसतयं । सामाजियदेवा पुण तदिए निवसति तुरिए दु ।। ५०० || मारोहियाभियोग किन्पिसियादी व जोगपासादे । गमिय तो लक्खदलं नंदणमिदि तब्बिसेमणामाणि ॥ ५०१ ॥ सेनापतितनुरक्षाः प्रथमे द्वितीयान्तरे तु पारिषदत्रयम् । सामानिकदेवाः पुनः तृतीये निवसन्ति तुरीये तु ॥ ५०० ॥ बारोद्दिकाभियोभ्यक किल्विषिकादयश्च योग्यप्रासादे । गत्वा ततः लक्षदलं नन्दनमिति तद्विशेषनामानि ॥ ५०१ || सेगा । सेनापतयश्ततुरक्षाश्च प्रथमेऽन्तराले सिन्ति । द्वितीयान्तरे तु पारिषदत्रयमस्ति । तृतीया पुनः सामानिकमेवर वसन्ति । तुय्ऽन्तरे तु ॥ ५०० ॥ पारोहिया मारोहिकाभियोग्य किल्विविकारयश्च स्वस्वयोग्यप्रासादे तिठ्ठन्ति । ततः परं लक्षययोजनानि गरथा गन्धनयनमस्तीति हेतोस्तद्विशेषनामानि वक्ष्यति ॥ १०१ ॥ ५५
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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