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________________ ८२ त्रिलोकमार गाथा : ८१-८ पद्यते 1 निपलानामनन्तसंख्याबलानां जीवाना गरे क्षेत्रं वदाति इति निगोवं कर्म तद्युक्ता जीवा निगो जीवा इत्युध्यन्ते । ततोऽसंख्यातस्यानानि गरबा वर्गशलाकास्ततोऽसंरूपातस्यानामि गरवा मर्षच्छे वास्ततोऽसंख्यातस्थानानि गत्वा प्रथममूलं तस्मिन्नेकवारं वर्गिते निगोदकावस्थितिर्भवति । सा कोदृशीति चेत् । प्रत्र निगोदकाय स्थितिरित्युक्त तावदेकजीवस्य निगो देवरकृष्टेन स्वस्थानकालो म गृह्यते तस्मातृतीयपरिवृत्तत्वात्। तहि कि गृह्यते ? निगोदशरीररूपेण परिणतपुद्गलानां तदाकार मस्योत्कृष्टेनावस्थान कालो गृह्यते ॥ ८६ ॥ तलो । तत उप संख्यात लोकमात्रकृतियानानि दिवा वर्गशलाकारसोऽसंख्यात लोकमात्रकृतिस्थानानि गत्वार्षच्छेय स्वतोऽख्यात लोक मात्र कृतिस्थानानि पटिया प्रथममूलं तस्मिन्नैकवारं थांगते सर्वज्योगोत्कृष्टा विभागप्रतिच्छेवा दृश्यन्ते । कर्माकर्षण शक्तिर्योगस्तस्याविभाग प्रतिदेशाः कर्माकर वाक्यविभागांशा इत्यर्थः ॥८७॥ गाथा :- सर्वावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र प्रमाण ] से असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान आगे आगे जाकर स्थितिबन्ध में कारणभूत कषायपरिणामों के स्थानों की वर्गशलाकाएं, अर्धच्छेद, प्रथम मूल और उसी प्रथमवर्गमूल का एक बार वर्ग करने पर कषायपरिणामों के स्थानों का प्रमाण प्राप्त होता है । उसके आगे अनुभागवन्ध स्थान के कारण भूत परिणामों की वर्गशलाकाएं, अर्धच्छेद, प्रथमत्रगं मूल और उसी प्रथममुल का एक बार वर्ग करने पर अनुभागबन्ध योग्य बंधाध्यवसान स्थानों का प्रमाण प्राप्त होता है। उससे असंख्यात वर्ग स्थान मागे आगे जाकर वर्गशलाकादिकों के साथ साथ निगोद जीवों के शरीरों की उत्कृष्ट संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है तथा उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे आगे जाकर वर्गशलाकादि तीनों के साथ साथ निगोदकाय स्थिति प्राप्त होती है। उससे असंख्यात लोक प्रमाण वर्ग स्थान आगे आगे जाकर वर्गशलाकादित्रय के साथ साथ योग के सर्वोत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण प्राप्त होता है ॥८५-८७॥ विशेषार्थ :- सर्वावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र प्रमाण से असंख्यात वर्ग स्थान आगे जाकर स्थितिबंध मैं कारणभूत कषाय परिणामों के स्थानों की शलाकाएं उत्पन्न होती हैं। उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर उसी के अर्धच्छेद और उससे असंख्यात वगंस्थान आगे जाकर उसी के प्रथम वर्गमूल की उत्पत्ति होती है। इस प्रथम वर्गमूल का एक वार वर्ग करने पर ज्ञानावरणादि कर्मों के स्थितिबन्ध के कारणभूत कषाय परिणामों के स्थानों की उत्पत्ति होती है। अर्थात् आठ कर्मों के स्थितिबन्ध के कारणभूत परिणामों का जितना प्रमाण है उतनी संख्या प्राप्त होती है। उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान की वर्गेशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर उसी के अच्छे और उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर उसी का प्रथम वर्गमूल प्राम होता है । इस प्रथम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने पर ज्ञानावरणादि कर्मो के तीव्रादि वात लक्षण वाले अनुभाग बन्ध में कारणभूत कषाय परिणामों के स्थानों का प्रमाण प्राप्त होता है। उससे
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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