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त्रिलोकसाब
माथा। ५६-८७-८४१
उण्हं छंडदि भूमी बर्षि सणिद्धचमोसहि धरदि । वन्लिलदागुम्मुतरू बड्डे दि अलादिवरसेहिं ।। ८६९ ॥ उष्णं त्यजति भूमिः छवि सस्निग्धत्वौषधि धरति ।
बल्लिलतागुल्मतरवो वर्धन्ते जलादिवर्गः ॥ ६९ ।। उण्हं । जलादिवर्षेभूमिकरणं त्यजति छवि सस्निग्धवं न्यायोधि च परति । वल्ल्यावयो पर्षन्ते समभूमौ । सुरक्षा सती जी वृक्षाश्रयेण प्रमरम्ती सत्ता कदाचिदपि स्पूलाकन्यतामप्राप्नुवन्तो गुल्माः स्यूलक योग्यावृक्षाः एते वर्धन्ते जलाविवर्षः ॥ ८५६ ॥
__गाचार्य :- जलादिक की वर्षा के कारण पृथ्वी उष्णता को छोड़ती है, शोभा, सचिकणता, अन्त और ओषधि पादि को धारण करती है तथा बेल, लता, गुल्म और वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होते है ।। ६६॥
विशेषापं :-जलादि की वर्षा से पृथ्वी उष्णता को छोड़ तो है, वि-शोभा, स्निग्धता और धान्य औषधि आदि को धारण करती है तथा बेल आदि बढ़ती है। जो भूमि पर जड़ के बिना फैलती है उस बेल कहते हैं। जो वृक्ष का आश्रय लेकर फैलती है उसे लता कहते हैं । जो कदाचित् भी स्थूळ वृश्चपने को प्राप्त नहीं होते उन्हें गुल्म कहते हैं और जो स्यूल वृक्ष होने योग्य होते हैं उन्हें वृक्ष कहते हैं। जल आदि की वर्षा से ये सब वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
णदितीरगहादिठिया भूमीयलगंधगुणसमाइया । णिग्गमिय तदो जीवा सब्वे भूमि भरंति कमे ।।८७०॥ नदीतीरगुहादिस्थिता भूशीतलगन्धगुणममाहूताः।
निर्गस्य ततो जीवाः सर्वे भूमि भरन्ति कमेण ।। ८७० ॥ रणवि । नवोतोरगुहादिस्थिता जोषा मुशीतलगन्धगुणसमाहूताः सन्त: सर्व ततो निस्य कमेण भूमि मरन्ति ।। ८७॥
गायार्थ :-(गङ्गा सिन्धु ) नदी के तीर तथा ( विजया को ) गुफा आदि में स्थित जीव पृथ्वी के शीतल, गन्ध गुण से बुलाए हुए ही मानों वहां से निकल कर सम्पूर्ण पृथ्वी को भर देते हैं।। ८..॥ इदानीमुरसर्पिणी द्वितीयकालादिवर्तनकममाह
उस्सप्पिणीयविदिए सहस्ससेसेसु फुलयरा कणयं । कणयप्पहरायद्धयपुंगव तह गलिण परम पहपउमा ||८७१।। उत्सपिणीद्वितीये सहनशेषेषु कुलकरा: कनकः । कनकप्रभराजध्वजपुङ्गवाः तथा नलिनाः पद्माः महापमः ॥४१॥