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त्रिलोकसार
पापा: १-२
टीकाकारवक्तव्यम्
तं त्रिलोकसारमलरिष्णुमत्रिवचन्द्रत्रविद्यदेवो अपि आत्मीयमीद्धत्यं परिहरति
गुरुग्णेमिचंदसम्मदकदिवयमाहा तहि तहिं रइदा | माइवचंद तिपिज्जेणिणमणुसरणिज्जमज्जेहिं ।। १ ॥ गुरुने मिचन्द्रसम्मतकतिपयगाथा: तत्र तत्र रचिनाः।
माघवचन्द्र विद्य दमनुसरणीयमायः ॥१॥ सकीयगुक्नेमिचन्द्रसिद्धासहित सम्मता: प्रयया प्रयाणां नेमिचन्द्रसिदान्तवेवानामभिप्रायानुसारिणः कतिपयगाथा: माधवचनावियेनापि तत्र तत्र रचिताः । इसमप्यायेंगचार्यमुसरणोपम ॥१॥
इस त्रिलोकसार ग्रन्थ को अलङ्काररूप करने वाले भाषवचन्द विद्यदेव भी अपने औद्धत्य का परिहार करते है
गाचार्य :- अपने गुरु श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती को सम्मति से अथवा उनके अभिप्रायानुसार कुछ गापाएं मावचन्द्र विद्यदेव द्वारा भी मत्र तत्र रची गई है। ऐसा प्रधान आचार्यों द्वारा जानना चाहिए ॥१॥ साम्प्रतमल सारकाप्यन्त्यमङ्गलं कुर्वन्नभीष्टाशंसनं करोति
मरहंतसिद्ध बाइरियुवज्झपासाहु पंचपरमेट्टी । इय पंचणमोकारो मवे भवे मम सुई दितु ।। २ ॥ अरहन्तसिद्धाचार्योपाध्यायसाघवा पक्षपरमेष्टिनः। इति पञ्चनमस्कारः भवे भवे मम सुखं वदतु ।। ५॥
इति टीकाकारयतम्यम् । अब ग्रन्थ को अलंकृत करने वाले माषवचन्द्र विद्यदेव भी अन्तमंगल करते हुए अपने अभीष्ट हल की याचना करते हैं
गापार्य':-अरहन्त, सिख, प्राचार्य, उपाध्याय और साषु ये पञ्च परमेष्ठी है। पश्चपरमेष्ठी स्वरूप पश्चनमस्कार मंत्र मुझे भव भव में सुखकारी हो ।। २ ।।
संस्कन टीकाकार का वक्त पूर्ण हआ।