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त्रिलोकसार
पापा : १८१-१९० ऐसी नदी को प्राप्त कर क्या होता है ? उसे कहते हैं---
गाथा:-अग्नि के भय से दौड़ कर पाने वाले नारकी यह शीतल जल है ऐसा मानकर जब उस नदी में प्रवेश करते है तो पार जल से उनका सारा शरीर जल जाता है ॥१५॥
विशेषा:-नवीन नारकी जीव अग्नि के भय से दौड़कर पाते हैं और वैतरणी नदी के जल को शीतल मानकर शीतलता की कामना करते हुए उसमें प्रवेश कर जाते हैं किन्तु शीतलता मिलने के स्थान पर, नदी के खारे जल से उनका सर्वाङ्ग दग्ध हो जाता है । अथ ते पुनः किं कुर्वन्तीत्यत आह -
उद्विय गेण पुणो असिपचवणं पयांति चामेति । तासिसत्तिजटिहिं छिज्जते बादपडिदेहि ।।१८९।। उत्पाय वेगेन पुनः प्रसिपत्रवन प्रयान्ति छायेति ।
कुन्तासिशक्तियष्टिभिरिङ्गद्यन्ते वातपतितः ॥१६॥ उद्विय । तति शेष: छायोमानमेवायः ॥१८॥ उसके बाद वे नारकी क्या करते हैं ? उसे कहते है -
नामा- नारकी शीघ्र ही वहाँ से उठकर 'यहाँ छाया है ऐसा मानते हए असिपत्रवन में प्रवेश करते हैं किन्तु वहाँ वायुसे गिरने वाले सेल, तलवार, शक्ति और लकड़ी आदि के सरश पत्रों से उनके शरीर छिद जाते हैं ।।१८९||
बिनोवा:-नारको जीव अग्नि से तप्त हुए वैतरणी में प्रवेश करते हैं, वहाँ खारे जलके कारण उनकी वेदना और बढ़ जाती है । उस भयङ्कर वेदना से प्रारण पाने के लिए वे शीतल छाया की कामना करते हुए वन में प्रवेश करते हैं तो वहाँ भी बाणों के समान तीखे पत्तों से उनके शरीष छिद भाते हैं । अथ तेषां बहिदुखसाधनमाह
लोहोदयभरिदाओ कभीमो तसबहुकडाहा य । संतच लोहफासा भू सूईसदुलाइणा ॥१९॥
लोहोदकरिताः कुम्भ्या तप्तबहकटाहारण ।
सन्तमलोहस्पी भूः सूचीशाइवलाकीर्णा । ":"-.
कोहो । छायामात्रमेवार्यः ॥१० भब नारकियों के दुःख के बाह्म साधन कहते है