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________________ त्रिलोकसार गाथा । ७३५ गाया :-हिमवत् पवंत आविकों के व्यास को दूना करके उसमें से भरत का ध्यास घटा देने से निषध पर्यन्त अपना अपना वाण अर्थात अपने अपने पर्वत एवं क्षेत्रों के वाण का प्रमाण प्राप्त हो जाता है, तका निषध के वाया में विदेह का अचं व्यास जोड़ देने से अर्घ विदेह के वाण का प्रमाण प्राप्त होता है ॥ ७६८ ॥ _ विशेषार्थ :- जम्बू द्वीपस्थ क्षेत्र एवं पर्वतों की सम्पूर्ण शलाकाएं १६ हैं, अतः जबकि १९० शलाकाओं का १०००.० योजन क्षेत्र होता है, तब क्रम से २, ४, ८, १६ और ३२ शलाकाओं का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर हिमवत् पर्वत का २१२०० योजन व्यास हेमवत क्षेत्र का 1990 योजन, महाहिमवन पर्वत का १००० योजन, हरिक्षेत्र का १३०० योजन और निषघ पर्वत का ३२११०० योजन व्यास है। इन सबको दूना करने पर ४११०० योजन, १६०० योजन, १२०० पो०, ४२११०० योजन और 1xp:०० योजन होता है ! पुन सभी में से भरल का ध्यास (१९०० योजन ) घटा देने पर हिमवत् पर्वत से निषध पर्यन्त के सभी पर्वत एवं क्षेत्रों के वाण का प्रमाण श्रम से ११५०० योजन, १० योजन, ३३०० योजन, ३११९०० योजन और 139900 योजन प्राप्त होता है तथा निषध के वारण 39:०० योजनों में विदेह व्यास १४११०० योजनों का अर्ध भाग ( ३२६९०० योजन ) जोड़ देने पर ( 380°+ ३१३१०० )=५५१६०० योजन अविदेह के बाण का प्रमाण प्राप्त होता है। इन उपयुक्त वाणों के प्रमाण को रख कर "इसुहोणं विक्खम्भं" इस गाथा ७६. के अनुसार प्रत्येक पर्वतों एवं क्षेत्रों को जौवाकृति और धनुषकृति का प्रमाण प्राप्त कर लेना चाहिये। यथा दक्षिण भरत के वाण का प्रमाण २३८५२ योजन है। इसको समुच्छिन्न करने पर १३५ योजन होता है तथा जम्बूद्वीप का एक लाख योजन ध्यास ही यहाँ जम्बूद्वीप का वृत्तविष्कम्भ है । इसे १॥ से समुच्छिन्न करने पर अर्थात् १००००० को ३६ से गुणित करने पर po० योजन होता है । इस वृत्त विष्कम्भ में से दक्षिण भारत के वाण का प्रमाण घटा देने पर ( 901000 --1984)=१८५१०५ योजन अवशेष रहे । इसको चौगुणे वाण के प्रमाण ( १५४३ }=१०० से गुरिणत करने पर ( १४.५४. )- 3639802.५०० योजन जोवा की कृति का प्रमाण प्राप्त हुआ। इसके वर्गमूल का प्रमाण १८१२२४ योजन होगा। इसमें अपने ही भागहार (१९) का भाग देने पर ९७४८१ योजन दक्षिण भरत की शुद्ध जीवा का प्रमाण प्राप्त हुआ। तथा दक्षिण भरत के वाण १३५ की कृति ( वर्ग ) का प्रमारण- २०११३२५ योजन है, इसे ६ से गुणित करने पर १२२११३.५० योजन प्राप्त हुए। इसमें जीवा को कृति जोड देने पर ( 3x30308:५० + १२५६१३०५० ) = ७४४ ३११५१२५० योजन दक्षिण भरत की घनुषकृति का प्रमाण प्रा होता है, तथा
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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