SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा : ४६-४७ लोकसामान्याधिकार इस योग फल द्वारा मध्यम असंख्यातासंख्यात रूप जो महाराशि उत्पन्न हो उसको उपर्युक्त प्रक्रिया द्वारा शलाका पिरलन एवं देय रूपसे स्थापित कर पुनः पुनः विरलन देय, गुणन और ऋण रूप क्रिया के द्वारा प्रथम शलाका राशि, द्वितीय शलाका राशि और तृतीय शलाका राशि की पूर्ववत् परिसमाप्ति होने के बाद जो महाराशि उत्पन्न हो उसमें (१) उत्सपिणी अक्सपिणी स्वरूप कल्प काल ( जो संस्मात पल्य मात्र है ) के समयों का प्रमाण ( २ ) स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान जो कल्प काल के समयों से असंख्यातलोक गुणे हैं। (३) अनुभागबंधाध्यवसाय स्थान जो स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान से असंन्यात गुणे हैं। ( ४ ) योग के उत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेद जो अनुभाग बधाश्यवसाय स्थान से असंख्यात गुणे हैं । ये चार राशियाँ दूसरा प्रक्षेप है । अर्थात् पहिले छह राशियाँ मिलाई थी पुन ये चार राशियां मिलाई । ___ इन चारों राशियों को मिलाकर जो महाराशि प्राप्त हुई उसका पूर्वोक्त प्रकार शलाका, विरलन और देय रूप से स्थापन कर पुनः पुनः विरलन, देय, गुणन और ऋण रूप क्रिया करके शलाका श्रय निष्ठापन (समाप्त करना चाहिये । इम अन्तिम प्रक्रिया से जो राशि उत्पन्न हो वह जघन्य परीतानन्त का प्रमाण है। इसमें से एक अङ्क घटाने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ४१ से ४५ ॥ विशेषार्थ:-गाथार्थ स्पष्ट है। भवरपरि विरलिय दाऊणेदं परोपरं गुणिदे । अबरं जुत्तमणतं अभव्यसममेत्य सऊणे ।। ४६ ।। जेद्वपरिचाणतं वग्गे गहिदे जहण्णजुत्तम्स ।। अवरमणताणतं रूऊणे जुत्तणंतवरं ॥ १७ ॥ अवरपरीत विरलय्य दरवा इदं परस्परं गुणिते। अबरं युक्तमनन्तं अभव्यसमं अत्र रूपोने ।। ४६ ।। ज्येष्ठपरीतानन्तं वगै गृहीते जघन्ययुक्तस्य । अवर अनन्नानन्तं रूपोने युक्तानन्तरम् ।। ४७ ।। प्रबरपरित । मनत्यपरिमितानन्त' विश्लम्म तवेव या तस्मिन राशौ परस्परं गुणिते मवरं युक्तानात प्रभष्यतमं । पत्र स्पोमेर सति ज्येवपरीतामस भवति । जघन्ययुक्तानन्तस्य वर्ग गृहीते प्रवरमनन्तानमा स्यात् । प्रारूपोते युक्तासन्तस्य परस्यात् ॥४६-१७॥ १४ मध्यमपरीतामन्त :- जघन्यपरीतानन्त से एकादि अंक द्वारा वृद्धि को प्राप्त तथा उत्कृष्ट परीतानन्त से एक अंक हीन तक के जितने विकल्प हैं। वे सब मध्यमपरीतानन्त हैं। १५ उत्कृष्ठपरीतासरत :-जयन्ययुक्तानन्त में से एक अङ्क कम कर देने पर उत्कृष्टपरीतानन्त प्राप्त होता है। १ जघन्यपरीतानन्तं ( म०, .)। २ रूप जने { २०, ५०)। ३ रूपे ऊने ( ब०, ५० )।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy