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त्रिलोकसार
गाथा : ४८ से ५१
१६ जघन्ययुक्तामन्त का स्वरूप:
गापापं :-जघन्यपरीतानन्त का विरलन कर प्रत्येक मंक पर जघन्यपरीतानन्त ही देय देकर परस्पर गुणा करने से जो लब्ध प्राप्त हो उतनी संख्या प्रमाण ( जघन्यपरीतानन्त ) जध० ५० अनन्त = अघन्ययुक्तानन्त होता है. जो अभव्य राशि के सदृश है। अर्थात् जघन्ययुक्तानन्त को जितनी संख्या होती है, उतनी संख्या प्रमाण अभव्य राशि है। इसमें से एक अङ्क घटाने पर उत्कृष्टपरीतानन्त होता है । तथा जघन्ययुक्तानन्त का वर्ग ग्रहण करने पर जघन्य अनन्तानन्त होता है, और इसमें से एक अङ्क घटा देने पर उत्कृष्टयुक्तानन्त प्राप्त होता है ।। ४६, ४७ ।।
विशेषार्थ :- गाथा अयं स्पष्ट है।
१७ मध्यमयुक्तानन्त :- जघन्य युक्तानन्त से एक अङ्क अधिक और उत्कृष्टयुनानन्त से एक अंक हीन करने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है, वह सब मध्यमयुक्तानन्त है।
१८ उस्कृष्यतामत:-जधन्यअनन्तानन्त में से एक अंक घटाने पर जो लब्ध प्राप्त होता है. वह उत्कृष्टयुक्तानन्त है।
१९ जषम्यनन्तामन्त :--ज धन्ययुक्तानन्त का वर्ग ( कृति) करने पर जघन्यअनन्तानम्न प्राप्त होता है।
२० मध्यममनन्तानन्त:- जघन्यअनन्तानन्त से एक अंक अधिक और उत्कृष्ट अनन्तानन्त में एक अंक हीन तक के सभी विकल्प मध्यम अनन्तानन्त हैं। २१ उरकूष्टयनन्ता का स्वाप :
अवराणताणतं तिप्पहि रामि करिच विरलादि । तिसलागं च ममाणिय लद्धदे पक्षिवेदव्या ॥४८॥ सिद्धा गिगोदसाहियवणम्फदिपोग्गलपमा अणंतगुणा । काल अलोगागासं कच्चैदेणंतपक्खेवा ॥४९।। तं तिण्णिवारव ग्गिदसंवगां करिय तत्थ दायब्वा । धम्माधम्मागुरुलघुगुणाविभागप्पडिन्छेदा ||५|| लद्धं तिबार बग्गिदसंबग्गं फरिय केवले गाणे । अपणिय तं पुण खिने तमणताणतमुकासं ।।५।।
अवरानन्तानन्तं त्रिःप्रतिराशिं कृत्वा विरलनादि । विशलाकां च समाप्य लब्धे एते प्रक्षेप्तव्याः || ४ || सिद्धा निगोदसाधिकवनस्पति पुद्गलप्रभा अनन्तगुणाः । काल अलोकाकाशं पद चैते अनन्तप्रक्षेपाः ॥ ४९ ।।