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पिलोकसाय
पाषा:
.-७९१
भोगभूमिओं को उत्पत्ति से मरण पर्यन्त के विधान को तीन गाथाओं में कहते हैं
गाया :- युगलिया उत्पन्न होने वाले भोगभूमिज क्रममा सात सात दिन तक मंगुष्ठ चूसते हैं, आँधे सीधे होते हैं अर्थात रेंगते हैं, अस्थिरगति से चलते हैं, सिथरपति से चलते हैं, कलागुणों से सम्पन्न होते हैं, यौवन प्राप्त करते हैं और परस्पर दर्शन करते हैं अर्थात स्त्री पुरुष रूप में एक दूसरे को देखते
विशेषार्थ :- भोगभूमि में स्त्रीपुरुष युगल उत्पन्न होते हैं । उत्पत्ति दिन से सात दिन तक वे अपना मंगुष्ठ चूसते हैं, सात दिन तक ओंधे होते हैं अथवा पोधे ओंधे रेंगने लगते हैं, तीसरे समाह में अस्थिरगति से और चौथे सप्ताह में स्थिरगति से चलते हैं। पांचवें सप्ताह में सम्पूर्ण कलाओं एवं गुणों से युक्त हो जाते हैं। छठे सप्ताह में सम्पूर्ण योवन युक्त हो जाते हैं पौर सातवे सप्ताह में एक दूसरे को स्त्री पुरुष रूप से देखने लगते हैं।
नपदीणमादिमसंहदिसंठाणमज्जणामजुदा । सुलहेसुवि णो तिची तेसिं पंचक्खविसएसु ॥७९०|| तपतीनामादिम संहतिसंस्थानं सायनामयुताः।
सुलभेषु अपि नी तृप्तिः तेषां पनाविषयेषु ।। ४५० ।। तहप। तद्दम्पतीनामाविमसंहननसंस्थाने स्याat बखावृष मनारायसंहननसमचतुरस्रसंस्थाने इत्यर्थः । ते चायनामयुताः तेषां सुलमेष्वपि पञ्चाविषयेषु न तृरितः ।। ७६० ॥
मापार्य :- दम्पत्ति, आदि संहनन, आदि संस्थान एवं प्रायं नाम से सहित होते हैं। पञ्चेन्द्रियों के विषय प्रति सुलभ होने पर भी वे कभी तृप्ति को प्राप्त नहीं होते ॥ १० ॥
विशेषार्थ :- भोगभूमिज प्रत्येक युगल दम्पति अर्थात् स्त्री पुरुष दोनों के प्रथम ( बज्रवृषभनाराष ) सहनन और प्रथम ( समचतुरस्र ) संस्थान होता है। वे 'बाय' नाम से युक्त होते हैं । अर्थात स्त्री, पुरुष को 'आर्य' और पुरुष, स्त्री को आर्या नाम से सम्बोधन करते हैं। पश्चं न्द्रियों के विषय अति सुलभ होते हुए भी वे कभी तृप्ति अर्थात् सन्तोष को प्राप्त नहीं होते।
चरमे खुदर्जभवसा णरणारि विलीय सरदमेधं षा। भवणतिगामी मिच्छा सोहम्मदुजाइणो सम्मा ।। ७९१ ।। घरमे शुतज़म्भवशात् नरनार्यो विकीय शरमेचं का।
भवनविगामिनः मिथ्याः सौष्ठमंद्वियायिनः सम्यवः ।। ७६१ ॥ परमे । मायुरुपावसाने अलजम्भयोवंशावयासंख्य रमाय: परकासमेघपहिलीय सत्र मिथ्याटपो भवमत्रयणामिनः सम्यग्हाया मौषमरिकमायिक स्युः ॥ ७९१ ॥