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पाषा! ३२७ ज्योतिलौकाधिकार
२७५ हो जाता है। इस प्रकार य र ल और व क्षेत्रों में सर्वत्र वेध ४ योजन प्राप्त करने के लिये व क्षेत्र पर स क्षेत्र को विपर्यास रूप से रखा है ] । इस य र ल और व क्षेत्र के ऊपर पूर्व प्राप्त क्षेत्र च छ ज और H को स्थापित कर देने से १६' यह क्षेत्र प्राप्त हो जाता है । ( क्षेत्र य र ल व का सर्वत्र बेघ ४ था
और क्षेत्र च छ ज प्र का सर्वत्र वैध १ था। एक क्षेत्र पर दूसरे क्षेत्र को स्थापित कर देने से सर्वत्र वेष (४+१)=५ हो जाता है।) इस क्षेत्र को भुजा ६ योजन में से तृतीय अंश को |
स्थापित करने से शेष क्षेत्र, ५' रह जाता है । पृथक किये हुये तृतीय अंश ||
के तीन खण्ड
करना चाहिये । इन तीनों पक्षों को एक भुज स्वरूप | |
| स्थापित करने से [५]
( भुजा++3=१ योजन, कोटि २ योजन और वेष ५ योजन वाला ) इस क्षेत्र की प्राप्ति होती है । इस क्षेत्र [१]२ को तियंगरूप अर्थात् मोटाई में से आधा आधा कर पास पास स्थापित करने पर इस प्रकार के क्षेत्र ३/५/२ को प्राप्ति होती है । ( इस क्षेत्र का वेध ( ५ का आधा ) ३ और भुवा
१+१=२ योजन हो गई किन्तु कोटि २ योजन ही रही।) उपयुक्त क्षेत्र २ को पुनः तियंग रूप अर्थात् मोटाई (1) में से आधा कर पृथक् पृथक स्यापित करने पर 'प' 'फ' नाम के दो क्षेत्र (१) (क) | ५ | बन जाते हैं। (जिनमें से प्रत्येक का वेध योजन का आधार योजन और भुजा
एवं कोटि पूर्ववत् दो दो पोजन है )। इनमें से प क्षेत्र [J२ दूसरे ऋण [३] के बराबर है, अता एक क्षेत्र दितीय ऋण को दे देना चाहिये।
विभाग ( अ यो. ) रहित जो बड़ा क्षेत्र (५५ है. उसको तिमंग रूप अर्थात् मोटाई (५)
में से आधा (3) करके पास पास |
। २
रखना चाहिये। इनमें से [] क्षेत्र को फिर भी