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________________ ६ त्रिलोकसार गाथा : २ नेमि शब्द का अर्थ नक्षत्र होता है, इस तरह जो रत्नत्रय के धारक मुनिरूपी नक्षत्रों के चन्द्र अर्थात् स्वामी है ऐसे अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामी अथवा सामान्य रूप से चौबीसों तीर्थंकरों का समूह ऐसा अर्थ होता है । इस पक्ष में 'त्रिभुवन चन्द्र' शब्दको व्याख्या इस प्रकार है- 'त्रिभुवनशब्देनात्र त्रिभुवनस्याविनेया ब्राह्याः तेषां चन्द्र इव प्रज्ञातलमोविनाशकः तम् ' अर्थात् जो तीनों लोकों में स्थित शिष्य जनों के अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये चन्द्रमा के समान है। बलगोविन्द आदि विशेषरण का अर्थ करते हुये शब्द का अर्थ बजेट वोररूपं वा विद्यते यस्य स बल:' इस विग्रह के द्वारा बल से सहित और गां स्वर्ग विदति - पालयति इति गोविन्दः इस व्युत्पत्ति के अनुसार गोविन्द का अर्थ देवेन्द्र किया है। समुदाय में शक्ति सम्पन्न इन्द्र के चूड़ामणि की किरणावलों से जिनके चरणनख लाल लाल हो रहे हैं, यह अर्थ किया है। मात्र यह है कि जो सौ इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय हैं। अथवा टीकाकार श्री माधवचन्द्र आचार्य अपने गुरु श्री नेमिचन्द्र आचार्य को नमस्कार करते हृये कहते हैं कि जो पच्चीस दोषों से रहित सम्यक्त्व, निर्दोष ज्ञान और निरतिचार चारित्र से पवित्र होने के कारण अत्यन्त निर्मल हैं ऐसे नेमिचन्द्र आचार्य को नमस्कार करता है। इस पक्ष में 'त्रिभुवन चन्द्र' विशेषण का अर्थ तीन लोक के जीवों के लिये धर्मामृत की वर्षा करने के कारण चन्द्रमा स्वरूप, होता है। अथवा चन्द्र का अर्थ सुवर्ण भी होता है इसलिये जो तीन लोक के जीवों के लिये सुबर के सद्दश उपादेय हैं । बल गोविन्द आदि विशेषण का अर्थ करते हुये 'वल का अर्थ चामुण्डराय राजा और गोविन्द का अर्थ राचमल्ल किया है. इस तरह चामुण्डराय और राजमल्ल के शिखामण की किरणों से जिनके चरणनख लाल लाल हो रहे हैं, अर्थात् उनके द्वारा जो निरन्तर वन्दित होते थे ऐसे नेमिचन्द्र आचार्य को मैं ( माधवचन्द ) नमस्कार करता ॥१॥ अथ प्रथमद्वितीयगाथाद्वयकृत चैत्य चैत्यालयनमस्कार करणेन नवदेवतानमस्कारं कुर्वन् ग्रन्थस्य पश्चाधिकारं सूचयन्नाह - भवणच्चितर जोइस विमाणणरतिरियलोयजिणभवणे । सच्चामरिंदर वह संपूजियवं दिए वंदे || २ || भव नव्यंतर ज्योतिविमानन रतिर्यग्लोकजिनभवनानि । सर्वामरेंद्रन पतिसंपूजितानि वंदे ॥ २ ॥ भवनध्पेस एज्योतिविमामन र सियं ग्लोक मिनभवनानि सर्वामरेंद्र नरपतिसम्पूजित भवरण । बंदितानि बंधे । २ ॥ आगे प्रथम और द्वितीय गाथाओं द्वारा किये हुए चैत्य और वैस्यालय के नमस्कार से नव देवताओं को नमस्कार करते हुए ग्रन्थ के पांच अधिकारों की सूचनारूप गाथा कहते हैं : अन्तमादियं जिणधम्मवयणपडिमाओ । निणिल इदि एवं वदेवादितु मे वोह ॥ ( ब० दि० )
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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