________________
" त्रिलोकसार
गाथा:७७ विवक्षित राशिको जितनी वार आधा करते करते एक अङ्क रह जाय उत्तने उस राशिक अर्धच्छेद कहलाते हैं। जैसे :-२५६ को ८ बार आधा आषा करने पर एक अङ्क रहता है अतः २५६ के ८ अर्थच्छेद हुए। यह नियम तीनों धाराओं के लिए है। अय गाया षटकेन द्विरूपचनधारामाई..
स्वनिदधारा अड़ चउसठ्ठी चरितु संखपदे । मावलि धनमावलिया फदिपिंदं चापि जायेज ||७७|| द्विरूपवृन्दधारा अष्ट चतुः षष्टिः चटित्वा संस्यपदानि ।
आरलिघन आवल्याः कृतिवृन्दं चापि जायेल ||१७|| देव । विरूपगंधाराराशीमा ये घनास्तेषां पारा: भg पतुः पाष्टः । एवं पूर्वपूर्ववर्ग' रूपेरण ४०९६ संख्यासस्थानानि गत्या जषम्पपरीतासंख्यातघनः ततो विलितराश्यसंस्थेव मात्रगप्पोत्पन्नत्वात् । संख्यात स्थामानि बटित्वा प्रावलि २ घन 5 उत्पद्यते । तस्मिन्नेकवार गिते प्रावल्या; कृतिघनश्चापि जायेत ॥७७॥
छह गाथाओं द्वारा द्विरूपचन घाराका निरूपण करते हैं :· गाथार्य:-द्विरूपचन घाराका प्रथम स्थान तथा दूसरा स्थान ६४ है । इससे संख्यात स्थान आगे जाकर आवली का धन और आवलोके वर्गस्वरूप प्रतरावली का धन उत्पन्न होता है |७||
विशेषार्ष:-द्विरूपवर्गधारामें जो जो वर्ग रूप राशि हैं, उन वर्गरूप राशियोंकी जो धनरूप राशि हैं, उनकी धारा को विरूप घनधारा कहते हैं। जैसे :--द्विरूप वर्गधाराका प्रथम स्थान २ है। इसी दो का धन (२x२x२) ८ हुआ, अत: द्विरूप धनधाराका प्रथम स्थान है। इसी प्रकार हिम्प वर्गधाराका दूसरा स्थान ४ और इस ४ का घन (४xxx४) ६४ हुआ अतः द्विरूप धनधाराका दूसरा स्थान ६४ है, जो द्विरूप धनधाराके प्रथम स्थान ८ के वर्ग (x2) स्वरूप भी है। इसीप्रकार द्विरूप वर्गधारा का तीसरा स्थान १६ और इस १६ का धन (१६४१६४१६) ४०६६ हुआ, अतः द्विरूपधनधारा का तीसरा स्थान ४०९६ है, जो द्विरूपधनधाराके द्वितीय स्थान ६४ के वर्ग (६४४ ६४} स्वरूप भी है । इसीप्रकार पूर्व पूर्व राशिका वर्ग करते हुए उत्तर उत्तर स्थान प्राप्त होता है, और संख्यात स्थान आगे जाकर जघन्यपरीतासंख्यात का धन प्राप्त होता है। इससे संख्यात स्थान आगे जाकर प्रावली का घन उत्पन्न होता है । "विरलन राणिक अछिंद प्रमाण वर्ग स्थान आगे जाकर विवक्षित राशि उत्पन्न होती है" इस नियम के अनुसार यहाँ बिरलन राशि जघन्यपरीतासंख्यात है और उसके अर्धच्छेद संख्यात हैं. इसलिये संख्यात स्थान आगे जाकर आवली का धन उत्पन्न हुआ है । मानलो - आवली ४ है
. रूपेण तती (प.)