________________
३२६
त्रिलोकसार
गाथा ३७९
विवक्षित वीथी की संख्या से द्विमुरण दिवसमति के प्रमाण को गुणित कर ६६६४० योजन प्रथम वीथी के विष्कम्भ में जोड़ देने से विवक्षित धीयोगत दो सूर्यों का पारस्परिक अन्तर प्राप्त हो जाता है, और वही उस अपनी अपनी वीथी के विष्कम्भ का प्रमाण होता है।
सूर्य की अभ्यन्तर ( प्रथम ) आदि वीथियों की परिधि :
"विखंभवग्गदहाशा...." गाथा ९६ के अनुसार अभ्यन्तर (प्रथम । वीथी के विष्कम्भ (4६० यो ) की परिधि का प्रमाण ३१५० योजन है। इसमें द्विगुण दिवसगति के विकम्भ की परिधि का प्रमाण जोड़ देने से द्वितीय वीथी की परिधि प्राप्त होती है। यथा-द्विगुण दिनगति के विष्कम्भ का प्रमाण ५३५ या योजन है। इसका वर्ग 12x x x . =
१०० प्राप्त हुआ। इस ७° का वर्गमूल १६" अर्थात् १७६६ योजन प्राप्त होता है. अत: ३१५०८९+ १७१ - ३१५१०६१६ योजन द्वितीय वीथी की तथा (३१५१.६३+१७३६) = ३१५१२४३१ योजन तृतीय बोथी की परिधि का प्रमाण प्राप्त हुमा। इसी प्रकार आगे आगे की (चतुर्थादि । वीथियों के परिधि प्रमाण को लाने के लिये पूर्व पूर्व वीथी के परिधि प्रमाण में १७३ योजनों को क्रमशः मिलाते जाना चाहिये । इस प्रकार अन्तिम ( बाह्य ) वीथी की परिधि का प्रमाण {३१५०९+ [ १७१५४ १८३ ) }- ३१८३१४ योजन ( १२७३२५६००० मील ) है।
इस प्रकार दिनति ( २४६ यो०), द्विगुण दिनगति ( ५३५ यो० ) और द्विगुण दिन गति की परिषि । १५३६ यो० ) के प्रमाण को मिलाने से क्रमशः सुमेरु और सूर्य का अन्तर, सूर्य से सूर्य का अन्तर और मार्ग की परिधि का प्रमाण प्राप्त हो जाता है।
गाथा ३७८ में 'सुरगिरि चन्दरवीरगं" पर से ज्ञात होता है कि सर्य के सष्टश चन्द्र की दिवस गति, मार्ग. अन्तर एवं परिधि आदि का वर्णन होना चाहिये था । किन्तु संस्कृत टीका में नहीं किया गया। तथापि कुछ ज्ञातव्य है । यथा--
चन्द्रमा के चार क्षेत्र का प्रमाणु ५११६=१५४ योजन तथा चन्द्र विम्ब का प्रमाण ५ योजन है। इसकी वीथियो १५ हैं, और यह प्रतिदिन क्रमशः एक एक गली में सञ्चार करता है।
जम्बूद्वीप का व्यास एक लाख योजन है। अम्बूद्वीप में चन्द्रमा के दोनों पाश्वं भागों में चार क्षेत्र का प्रमाण (१८०४२)=३६० योजन प्रमाण है, अत:
१०००..-३६० =६१६४० योजन जम्बद्वीप की अभ्यन्तर वीथीस्थ उभय चन्द्रों के बीच अन्तर का प्रमाण है। १५१४01200 =१४८२० योजन, सुमेह से अभ्यन्तर (प्रथम ) बीथी में स्थित चन्द्र के धन्नर का प्रमाण है।