SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिलोकसार अढ़ाई द्वीप में स्थित स्थिर ताराओं का निरूपण करते हैं : गावार्थ :-- पुष्कराचं पर्यन्त ध्रुव तारा क्रम से छत्तीस एक सौ उत्तालीस एक हजार दश इकतालीस हजार एक सौ बीस और त्रेपन हजार दो सौ तीस हैं ।। ३४७ ।। २९२ विशेषार्थ :- जम्बूद्वीप में स्थिर तारा २६३, लवणोदक समुद्र में १३९, घातकी खण्ड में १०१०, कालोक में ४११२० और पुष्करार्ध में ५३२३० ध्रुव ताराएं हैं। अथ ज्योतिर्गणानां च विचारमति— गाथा : ३४६-३४६ जो एक्के मागम्हि दीवडवहीण | एक्के मागे अर्द्ध चरंति पंतिषकमेव ।। ३४८ ।। स्वकीयस्वकीयज्योतिर्गणाधं एकस्मिन् भागे द्वीपोदधीनाम् । एकस्मिन् भागे अर्थ चरन्ति पद्मिकभेव ॥ ३४८ ॥ सामामात्रमेवार्थः ॥ ३४८ ॥ अब ज्योतिषी देवों के गमन क्रम का विचार करते हैं: -- :- अपने अपने द्वीप समुद्रों के ज्योतिपी देवों के समूह का अभाग अपने अपने द्वीप समुद्र के एक भाग में और दूसरा अर्थ भाग एक भाग में पंक्ति रूप गमन करता है ॥ ३४८ ॥ विशेषार्थ :- जिस जिस द्वीप समुद्र में जिसने जितने ज्योतिषी देव रहते हैं, ज्योतिषी देव तो उसी अपने द्वीप या समुद्र के एक भाग में सवार करते हैं, और आधे करते हैं। ज्योतिषी देवों का गमन पंक्तिबद्ध होता है । अथ मानुषोत्तरात्रचन्द्रादित्यानामवस्थानकमं निरूपयति मसुरसेलादो वेदमूला दीवउवहीणं । पणासहिय लक्खे लक्खे तदो वलयं ॥ ३४९ ॥ मानुषोत्तरशला वेदिका मूलात् द्वीपोदधीनाम् । पाशत्सहस्रश्च लक्षे लक्षे ततो वलयं ॥ ३४६ ।। उनमें से आधे एक भाग में मासु । मानुषीतलात् प्रोपोदीना वेविकाला पञ्चाशत्सहस्रयोजनानि गरा भवति । ततः परं लक्षलक्षयोजनानि गरवा वलयानि भवन्ति ।। ३४६ ।। - L
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy