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________________ Y गांमा1१०१ लोकसामान्याधिकार १.५ अब जगच्छेणी की वर्गशकाओं का प्रदर्शन करने के लिए कहते हैं : गायाप:-अखापल्य की वर्गशलाकाओं में जघन्यपरीतासंख्यात के गुणे का भाग देने पर जो सब्ध उपलब्ध हो उसमें घनांगुल की वर्गशलाकाओं को जोड़ देने से जगच्छणी की वर्गशलाकाएं प्राप्त होती हैं ।।१०६11 विशेषाय :- दुगुणपरीतासंख्यात से भाजित अद्धापल्य की बशिलाकाओं में धनागुल की वर्गशलाकाएं मिला देने पर जगच्छेणी की वर्गशलाकाएं प्राप्त हो जाती हैं। यहां दुगुणजघन्यपरीतासंग्ल्यात का भाग कसे दिया । उसे कहते हैं - अद्धापल्य की अच्छेिद राशि के अच्छेद हो पल्य की वर्गपालाकाओं का प्रमाण हैं । पल्प को अर्धच्छद राशि के प्रथमवर्गमल के अधुच्छेद पल्य को नाला अधि पक्ष के प्रमाण होने है। दूसरे वर्गमूल के अर्धच्छेद पत्य की वर्गशलाका अर्थात् पल्प के चतुर्थ (2) भाग प्रमाण होते हैं । तीसरे वर्गमूल के अच्छेद पल्य का वशालाका अर्थात् पल्य के अष्टम ( 2 ) भाग प्रमाण होते हैं। तथा पल्य की अन्छिद राशि के चतुर्थ वर्गमूल के अर्धच्छेद पज्य की वर्गशलाका अर्थात् पल्य के सोलहवें भाग प्रमाण होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक वर्गमूल के अर्धच्छेद तब तक अध अर्ध करना चाहिए जब तक कि अच्छेिद राशि के नीचे जपन्यपरीतासंख्यात के अच्छेदों से एक अधिका वर्गमूल प्राप्त न हो जाय । अन्त में जो वर्गमूल प्रास होगा उसके अच्छद दो जघन्यपरीतासंख्यात से माजित अवापल्य को वर्गशलाका प्रमाण होंगे। ___जिम प्रकार ऊपर ऊपर के वर्गों में अच्छेद दुने दूने होते है, उसी प्रकार नीचे नीचे के वर्गमूलों में { अच्च्छेद ) आधे आधे होते हैं। इस युक्ति से जिस नम्बर का वर्गमूल हो उतनी बार दो लिखकर परस्पर गुणा करने से अदापन्य की शलाकाओं का भागहार प्राप्त होता है। जैसे- चतुर्थ वर्गमूल है, अतः ४ बार दो का गुणा (२x२x२x२) करने से पत्य की कालाकाओं के भागहार १६ की उत्पनि हुई। इसी प्रकार यहाँ जघन्यपरीतासंड्याल के अच्छदों से एक अधिका वर्गमूल है, अत: जघन्यपरीतासंख्यात से एक अधिक अर्धच्छेद प्रमाण दो के अङ्क लिन कर परस्पर गुणा करने से अद्धापल्य को वर्गशलाकाओं के भागहार स्वरूप दो जघन्यपरीतामण्यात की प्राप्ति होती है, अत: अद्धापत्य को वशिलाका में दिपगाछेद वेद मंमिलिदा" (गाथा १०८ ) के अनुसार देय राम २ जघन्यपरीनासंगयान घनांगुल के अछेदों के अच्छेद अर्थात पनागुल, की वर्गणलाकाएँ मिला दन पर जगच्छणी की वर्गशलाकाएं उपलब्ध हो जाती हैं । यह सब मन में विचार कर आचार्य ने "दुगुणपरोतास" इत्यादि मूत्र कहा है । "वम्गादुवरिमनग्गे" ( गाथा ७४ के अनुमार जगणों के अच्छेदी से जगत्प्रतर के मच्छेिद दूने होते हैं । "वगसलामवाहिया" (गाथा ७५) के न्यायानुसार जगच्छणी की वर्गशलाकाओं १४
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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