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________________ मिलोजसाप गाथा : ११० १०६ से जगत्प्रतर की वर्गशलाकाएं एक अधिक होती हैं। "तिगुणा तिगुणा परट्ठाणे" ( गाथा ७४ ) के अनुसार जगच्छ्रेणी के अर्धच्छेदों से घनलोक के प्रच्छंद तिगुने होते हैं । "सपदेपरसम" ( गाथा ७५ . ) के अनुसार घनलोक की वर्गशलाकाएँ जगच्छ्रेणी की वर्गशलाकाओं के बराबर ही होती है । 'तम्मेतदुगे गुणे रामी" इति न्यायेनार्थच्छेदमात्रद्रिकानामन्योन्याहृतो राशिना भवितव्य - मित्यत्र साधिकछेदानां छे छे ३ कथमित्याह - विरलिदरासीदो पुण जेत्तियमेचाणि अहियरुवाणि । तेसिं अष्णोष्णहदी गुणगारो लद्धरासिस्य ।। ११० ।। विरचितराशितः पुनः पावन्मात्राणि अधिकरूपाणि । तेषां अन्योन्यहतिः गुणकारी लव्धराशेः ।। ११०।२ विर । विरलितराशितः पुनर्यात्मकरूपारिंग को को १० तासां देवाः तावन्मात्र द्विकानामन्योन्यहतिः को. को. १० लब्धपत्यराशे कारो भवति । प्रदृष्टो विरतिराशि: १६ परश्वः ४ तस्मादधिकरूपछेवः ३ तत्मात्रद्विकान्योन्यासी लब्धपत्य राशि: १६ गुणकारी भवति । १६ x ६ तयोः गुण्यगुणकारयोर्गुळे ते सागरोपमः १२८ स्यात् ॥११०॥ अब " तम्मेदुगे गुणे रासी" ( गाथा ७५) के न्यायानुसार अच्छेदों के प्रमाण बराबर दो के अ लिखकर परस्पर गुणा करने से मूलराणि उत्पन्न होती है। जो साधिक अर्धच्छे होते हैं वे कैसे होते हैं ? अर्थात् मूलराशि के अच्छे से अधिक अच्छेदों द्वारा किस राशि की उत्पत्ति होती है, उसे कहते हैं गायार्थ :- अर्थच्छेद स्वरूप विरलन राशि में जितने अच्छे अधिक हो उतनी जगह २ का अङ्क लिखकर परस्पर गुणा करने से जो लब्ध उत्पन्न हो यही लक्ष्य राधिका गुगाकार होता है ।। ११० ।। विशेषार्थ :- सागरोपम के अर्धच्छेदों का प्रमाण संख्यात अधिक पल्य के अर्धच्छेदों के प्रमाण बराबर हैं । यहाँ विरलन राशि पल्य के अर्धछेद है, इनसे जो संख्यात अच्छेद अधिक हैं, उतनी बार दो का अक रखकर परस्पर गुणा करने से दण कोड़ाकोड़ी का प्रमाण प्राप्त होता है और विरलन राशि प्रमाण दो का अङ्क रखकर परस्पर गुणा करने से पश्य के प्रमाग की उपलब्धि होती है। तथा इस पल्म के प्रमाण में उपर्युक्त दशकांड़ाकोड़ों का गुणा करने पर सागरोपम की उपलब्धि होती है। संदृष्टि मान लीजिये :- सागरोपम के अच्छेद ७ है, और विरलन राशि पल्योपम के अच्छे ४ हैं, इससे सागरोपम के अर्थच्छेद ७- - ४ } अङ्क रखकर ( २ × २ × २) परस्पर में गुणा करने से है । (१६) च्छेद (४) प्रमाणा विरलन राशि है, — ३ अधिक है । अतः ३ जगह दो का प्राप्त हुये जो देवकोटाकोड़ी के तुल्य न इतने बार (४ वार ) २ का अ
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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