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________________ पापा। ९१२-१३ नतिर्यग्लोकाधिकार सुदर्शनस्म दक्षिणोत्तरभद्रशालवनप्रमाणमाह पढमवणहसीहंसो दक्खिणरत्तागमसालवणं । बिसदं पण्णासहियं खुल्लयमंदरणगेवि तहा ।। ६१२ ।। प्रथमवनाष्टाशीत्यंशः दक्षिणोत्तरगभदशालवनम् । द्विशतं पश्चाशदधिक क्षुल्लकमन्दरनगेऽपि तथा ॥ ६१२ ।। पठम । सुवर्तममेरोः पूर्वापरभवशालवनस्य २२००० शोति भागो बक्षिणोत्तरगतमाशालवनप्रमाणं स्यात् । पञ्चाशरसहितं द्विशतं २५० तल्लब्धं स्यात् । क्षुल्लकमन्दरनगेष्वपि तथा वक्ष्यमाणपूर्वापरभद्रशालस्याष्टाशीरयंश एव तथा दक्षिणोत्तरमनद्यालयमप्रमाणं स्यात् ॥ ६१२॥ सुदर्शन मेरु के दक्षिणोत्तर भद्रशाल वन का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ :-प्रथम वन की पूर्व पश्चिम चौड़ाई का ८८ वा भाग अर्थात् ( २२११) २५० योजन दक्षिणोत्तर भवशाल की चौड़ाई का प्रमाण है। शेष चार छोटे मन्दर मेरु पर्वतों के दक्षिणोत्तर भद्रशाल की चौड़ाई का प्रमाण भी पूर्व पश्चिम चौड़ाई का ६० वा भाग ही है ।। ६१२ ॥ अथ वनोभयपार्श्वगतवेदीस्वरूपमाह वेदी वणुभयपासे इगिदलबरणुदयवित्थरोगाढो। हेमी सघंटघंटाजालसुतोरणा बहुदारा ।। ६१३ ॥ वेदी वनोभयपावें एकदलचरणोदयविस्तारावगाषाः । हैमी सघण्टघण्टाजालसुतोरणका बहुद्वारा ॥ १३ ॥ वी। भाशालादिवनोमयपाचे हेममयी महाघण्टा क्षुल्लकघण्टावालालकृतसुतोरणयुत. बहबारा वेद्यस्ति । तस्या उदयविस्ताराषगाषा व्यासंख्यं एकयोमनायोमनयोजनाचतुर्याशा। स्पुः ॥ ६१३ ॥ अब वनों के दोनों पाव भागों में स्थित वेदी का स्वरूप कहते है : गाथार्य :-वनों के दोनों पाव भागों में दिया है, जिनका उदय, विस्तार और गाय कम से एक, अब और पाव योजन प्रमाण है। वे वेदियाँ स्वर्णमय और बहृत द्वार वाली है, तथा महा घण्टा और छोटी घण्टिकाओं सहित एवं उत्तम तोरणों से सुशोभित हैं।। ६१३ ॥ विशेषार्थ:-भद्रशालादि वनों के बाह्य अम्पन्तर दोनों पाश्वं भागों में स्वर्णमय वेदियो हैं। जिनकी ऊंचाई एक योजन, चौड़ाई अर्घ {3) योजन और गाघ अर्थात् नींव पाव (१) योजन प्रमाण है। ये वेदियो महाघण्टा और छोटे घण्टाजालों से अलंकृत, उत्तम तोरणों से सहित और बहुत द्वार वाली हैं।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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