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त्रिलोकसार
पाथा ।।११-१२०
तन्मपहपाग्रस्थमानस्वम्भस्वरूपमाह
तम्सागो इगिषासो छचीसदी सबीट वाममो। माणत्थंभो गोरुद' विस्थास्य पारकोहिजुदो ।। ५१९ ।। तस्याने एकव्यासः पत्रिषादयः सपीठ: वजमयः।
मानस्तम्भः क्रोशविस्तारः द्वादशकोटियुतः ॥ ५१६ ।। सहसाग।। तन्मण्डपस्याने एकपोजनव्यासः षशियोजनोवयः पीठसहितो कामयः कोशविस्तारो ढावशधारायुक्तो मानासम्भोऽस्ति । ५१९॥
उस आस्थानमण्डप के अग्रस्थित मानस्तम्भ का स्वरूप कहते हैं
गायार्थ :-उस आस्थान मण्डप के आगे एक योजन विस्तीर्ण, ३६ योजन ऊंचा पाद पीठ से सहित, और एक कोश विस्तार वाली बारह धाराओं से संयुक्त वसामय मानस्तम्म है ।। ५१६ ॥
विशेषार्थ :-उस सभा मण्डप के मागे एक योजन (८ मील) विस्तीर्ण, (घोडा) ३६ योजन ( २८८ मील ) ऊँचा, पादपीठ से युक्त वनमय मानस्तम्भ है। इसका आकार गोल और प्यास एक योजन अर्थात् ४ कोश है । इसमें एक एक कोश विस्तार वाली बारह धाराएं हैं। अथ तन्मानस्तम्भकरण्डकस्वरूपंगायात्रयेणाह
चिट्ठति तत्थं गोरुदच उत्थविस्थार कोसदीहजुदा । तित्थयरामरणचिदा करण्डया रयणसिक्कषिया ।। ५२.॥ तिष्ठति तत्र कोशचतुर्थविस्ताराः क्रोशदध्यंयुताः ।
तीर्थकराभरणचिताः करमुका रत्नक्षिक्यघृताः।। ५२० ॥ वति। तत्र मानस्तम्मे कोशचतुर्थाशविस्तारा: कोशवध्ययुता: सीकरामरणचिता रलशिक्यताः फरकास्तिम्ति ।। ५२०॥
इस मानस्तम्भ पर स्थित करण्डों का स्वरूप तीन गायाओं द्वारा कहते हैं
गायाय':--'उस मानस्तम्भ पर एक फोस लम्बे मोर पाव कोस विस्तृत रत्नमयी सौंकों के ऊपर ठोपहरों के पहिनने योग्य अनेक प्रकार के भाभरणों से भरे हए करण । पिटारे स्थित ॥ ५२० ॥
विशेषाप-पाचार्य की भांति ही है। , कोश (२० टि.)।