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त्रिलोकसार
पाया। ४७४
करने पर आदि धन का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा-सा. के ( ३१४३)= ६३, मा० के (३४) ०३१, ब्रह्मवोतर कल्प में ९६, लां-कापिष्ट कल्प में ८०, शुकमहाशुक्र कल्पमें ७२, श-सहसार कल्प में ६८, आनतादि चार में ६४. अयोग्नेवेयक में ४०, मध्यमे देयक में २८, उपरिम प्रवेयक में १६ और नव अनुदिश विमानों में ४ आदि धनों का प्रमाण है । ऋणरूप चय मर्थात उत्तर धन सानत्कुमार में ३ माहेन्द्र में १ है, इसके ऊपर सर्वत्र ४ है । गच्छ का प्रमाण अपने अपने पटस प्रमाण होता है। यथा-सानत्कुमार आदि में कम से ७. ४, २, ३, ५, ६, ३, ३, ३ और । है। इस प्रकार आदि धन, उत्तर धन और गच्छ का ज्ञान हो जाने पर दक्षिगोन्द्र और उत्तरेन्द्र के भेणी बदों का सर्व सङ्कलित धन प्राप्त करना चाहिए। पथा
*-x=8; (६३-६)x= ५८८ सानत्कुमार कल्प के श्रेणीबद्धों का प्रमाण है। म.-१=; (३१-३)४७-१९६ माहेन्द्र " . . . . . xxx४==६; (६६-६)४४-३६० ब्रह्मब्रह्मोत्तर कल्प के श्रेणीबद्धों का प्रमाण है। २६.४४-२ (२०-२x२ --- १५६ बान्तव कापिष्ट " " " . . " Hrx४.; (७३-.)४१-७२ शुक्रमहाशुक . . . . . . 14.x४-.:(६८-०x१-६८ शतार सह. . . . . . 4-४४-१ (६४-१०)४६-३२४ अानतादि ४.. . 1.४४-४,(४०-४)xt=१०८ अधोग्र धेयक . . . 221४४-४; (२८-४४३-७२ मध्य. . . 32.४=४; (१६-४}x=३६ उपरिम. .. " ,
xx=0; (४-.) x १=४ अनुदिशों - " . . . अथ तत्र प्रथमेन्द्रकस्य श्रेणीपदानामवस्थितोद्देशकमुपदिशति
उडुसेढीबद्धदलं सर्पभुरमणुवहिपणिघिमागम्हि । आइल्लसिण्णि दोघे तिण्णि समुई य सेमा ।। ४७४ ।। ऋतुणीबददलं स्वयम्भुरमणांदधिपरिधिभागे।
आदिभत्रिषु द्वीपेषु त्रिषु समुद्रषु च शेष हि ।। ४०४ ॥ मुसेड़ी। ऋविनाको गोमवावं ३१ हरयम्भूरमणोपधिप्रणिषिमागे तिष्ठति। शेषा तु स्वयम्भूरमणसमुद्रापर्वाधीमेषु स्वयम्भूरमरणाविषु त्रिषु खोपेषु त्रिषु समुद्रषु । १५ । । ४ । २. तिष्ठति ॥४७॥ प्रथम श्रेणीबद्ध विमानों के अवस्थान का वर्णनगाचार्य :-ऋतु इन्द्रक विमान को एक दिशा में ६९ श्रेणी बद्ध है। इनके आधे ( ३१)