________________
२४०
त्रिलोकसार
गाया । २९६ - ९६७
सर्वेषां व्यन्तराणां यथासम्भवं निवासप्रदेशमुपदिशति - चितवइरादु जानय मेरुदयं तिरियलोयवित्थारं । मोम्मा इति भवणे भवणपुरावासगे जोगे ।। २९६ ।। चित्राव ज्यातः यावत् मेरुदयं तियंग्लोक विस्तारं । भोमा भवन्ति भवने भवनपुरावास के योग्यं ।। २९६ ।।
दिस। विश्रावयामध्यावारभ्य यावत्मेरुदयं यावलियं ग्लोक विस्तारं तावति क्षेत्र भौमा भव लि स्वस्दयोग्य भवने भवनपुरे घावासे च ।। २६६ ॥
अब यथासम्भव सभी व्यन्तरदेवों के निवासक्षेत्र कहते हैं
गायार्थ:- चित्रा और यत्रा पृथ्वी की मध्य सन्धि से प्रारम्भ कर मेरु पर्वत की ऊंचाई पर्यन्त तथा तिर्यग्लोक के पर्यन्तन्तर अपने अपने योग्य पुरों में भवनों में और आवासों
निवास करते है || २६॥
विशेषार्थ:-- चित्रा और त्रखा पृथ्वी की सन्धि से प्रारम्भ कर मेरु पर्वत की ऊंचाई तक के तथा मध्यलोक का विस्तार जहाँ तक है वहाँ तक के समस्त क्षेत्र में व्यन्तरदेव यथायोग्य भवनपुरा, आवासों एवं भवनों में रहते हैं।
अथ निलय संक्रममावेदयति
भवणं भवणपुराणि य भरण पुरावा मयाणि केसिंपि ।
मरणाम रेसु असुरे विहाय केसिं तियं णिलयं ।। २९७ ।। भवनं भवनपुरे च भवनपुरावासकानि केषांचित् । भामरेषु असुरान् विहाय केषां त्रयं निलयम् ||२९७॥
भषणं । केषांचित भवनमेष, केषांचिद्भवनभवनपुरे च भवतः, केषांविभवमभवन पुरावासकानि च भवन्ति । भवनामरेषु प्रसुरान् विहाय केषां चित् त्रयं मिलयम् ॥ २९७॥
अब तिलयों का क्रम कहते हैं
माषार्थ :- कुछ व्यन्तरदेदों के मात्र भवन ही हैं, कुछ के भवन और भवनपुर हैं तथा कुछ के भवन, भवनपुर और आवास ये तीनों हैं। भवनवासी देवों में असुरकुमारों को छोड़कर शेष में किन्हीं किन्हीं के भवन, भवनपुर और आवास, ये तीनों होते हैं ।। २६७
विशेषार्थ:- व्यन्तर देत्रों में से कोई कोई व्यन्तरदेव मात्र भवनों में रहते हैं; कोई भवन और भवनपुर इन दोनों में रहते हैं तथा कोई कोई भवन, भवनपुर और आवास- इन तीनों में रहते हैं ।