SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाया।३३५-३३६ २८३ ज्योतिर्लोकाधिकार तारंतरं महण्णं तेरिच्छे कोसससभागो द। पण्णासं मजिझमयं सहस्समुक्कस्सयं होदि ।। ३३५ ।। तारान्तरं जघन्य तिर्थक कोशसप्तभागस्तु । पलाशत् मध्यमकं सहस्रमुत्कृष्टकं भवति ॥ ३३५ ॥ तारंतरं। तारकाया: सकाशात् तारकान्तरंजघाय नियंपू कोशसारमभागः पश्चाशयोजनानि मध्यमान्तरं पोजनसहस्रमुस्कृष्टान्तरं भवति ॥ ३३५ ।। प्रकीर्णक ताराओं का तियंग रूप से तीन प्रकार के अन्तर का निरूपण करते हैं । गाथार्थ :--एक तारा से दूसरी तारा का तियंग जघन्य अन्तर एक कोश का सातवा भाग, मध्यम अन्तर पचास योजन और उत्कृष्ट अन्तर एक हजार योजन।।। ३३५॥ विशेषार्थ !-एक तारा से दूसरी तारा का तिर्यग जघन्य अनर : कोश, ( १४२ मील ) मध्यम मन्तर ५० योजन ( २००.०० मील) और उत्कृष्ट अन्तर १००० योजन ( ४०००००० मील ) प्रमाण है। इदानीं क्योतिविमानस्वरूपं निरूपयति उचाणट्ठियगोलकदलसरिसा सव्वजोइसरिमाणा । उपरि सुरनयराणि य जिणभवणजुदाणि रम्माणि ॥३३६ ।। उत्तानस्थितगोलकदलसदृशाः सर्वज्योतिष्कविमाना।। उपरि सुरनगराशि च जिनभवनयुतानि रम्पाणि ।। ३३६ ॥ उत्साणं । उपरि तेषामुपरि' इत्यर्षः । शेषश्च्छायामात्रमेवार्थः ॥ ३३६ ॥ अब ज्योतिविमानों का स्वरूप-निरूपण करते हैं। गाथार्थ :-सर्व ज्योतिर्विमान अर्धयोले के सदृश ऊपर को अति अध्वं मुख रूप से स्थित है, तथा इन विमानों के ऊपर ज्योतिषीदेवों की जिन चैत्यालयों से युक्त रमणोक नगरिया हैं ॥ ३३६ ॥ विशेवार्य :-जिस प्रकार एक गोले के दो खण्ड करके उन्हें ऊध्वं मुख रखा जाये तो चौड़ाई का भाग ऊपर और गोलाई बाला संकरा भाग नीचे रहता है । उसी प्रकार ऊध्वं मुख अर्धगोले के सहश
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy