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________________ विनोकसार पापा । ६.१ गंगदु । गंगारिकरक्ताहिकमोहनिर्गमध्याता सपादलड़योजनानि भन्यासा मवीनां निर्गमप्पासाः विवेहपर्यन्तं विगुणमाः स्युः । सर्वासा नवीनामन्ते समुदप्रवेशे ज्यासा दशगुणाः सर्वात गायत्तत्तद्विस्तारपश्चाशदंशः स्यात् ॥ ६ ॥ खन नदियों का विस्तार कहते हैं : पायार्थ :-गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा इनके निर्गम स्थान का व्यास ६४ योजन है । विदेह पर्यन्त यही प्रमाण दूना दूना होता गया है। सर्व ही नदियों का अन्तिम अर्थात् समुद्र में प्रवेश का ध्यास अपने अपने निर्गम व्यास से दश गुखा है, तथा सना को गहराई को प्रभाष अपने अपने विस्तार का पचासवाँ भाग है ॥ ६०० ॥ विशेषार्थ :-गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा नदियों का ध्यास द्रहों से निकलते समय ६३ योधन होता है। अर्थात् निकलते समय इनकी चौड़ाई ६१ योजन होती है। विदेह पर्यन्त दो दो नदियों का यही व्यास दूना दूना होता गया है। समुद्र में प्रवेश करते समय सभी नदियों के व्यास का प्रमाण अपने अपने निगम व्यास प्रमाण से १० गुणा होता है । जैसे- गंगा आदि उपयुक्त चारों नदियों की चौड़ाई समुद्र में गिरते समय (६३४१०)-६२१ योजन है। समस्त नदियों की गहराई का प्रमाण अपने अपने विस्तारका पचासवाँ भाग है । जैसे गंगा को गहराई ( २५ योजन:-५०)- ३ योजन है । ऐसे ही अन्यत्र जानना। अथ तासां नदीनां तोरणस्वरूपं गापाद्वयेनाह णदिणिग्गमे पवेसे कुंडे अण्णत्थ चावि तोरणयं । विवजुदं उवरिं तु दिक्कण्णावाससंजुत्तं ।। ६०१ ।। नदीनिगमे प्रवेशे कुण्डे अन्यत्र चापि तोरणकम् ।। बिम्बयुतं उपनि तु दिक्कन्यावाससंयुक्तम् ॥ ६.१ ।। गदि । नदीनिगमे प्रवेश कुण्ठे प्रपत्रापि च उपरि जिननिम्बयुतं विक्कन्यावाससंयुक्तम तोरणमस्ति । ६.१॥ उन नदियों के तोरण का स्वरूप दो गाथाओं द्वारा कहते हैं :-- पापापः-नदी, समुद्र एवं कुण्ड ३. निगम स्थानों पर, प्रदेश स्थानों पर एवं अन्यत्र भी जिन विम्ब हैं ऊपर जिनके ऐसे दिक्कन्याओं के आवासों से संयुक्त तोरण द्वार हैं | ६०१ ॥ विशेषार्थ :-नदी के निर्गम स्थान अर्थात् द्रहों और कुग्मों के द्वार पर, तथा जम्बूद्वीप के कोट के जिन द्वारों से होकर नदी समुद्र में जाती है उन द्वारों पर तथा अन्यत्र भी गुफा आदि के द्वारों पर जिन बिम्ब हैं ऊपर जिनके ऐसे दिक्कुमारियों के आवासों से युक्त तोरणद्वार हैं।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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