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बाबा : १२२ से २४
नपतियेोकाधिकार
तेषु कु मनुष्यद्वीपेषु उत्पद्यमानान् गाथाश्रमेणाह—
जिणलिंगे मायावी जोइसमंतोषजीवि घणकंखा | अगउग्वण्णजुदा करंति जे पर विवाहबि ।। ९२१ ।। दंसणविराहया जे दोसं णालोचयंति दूसणमा । पंचग्गतवा मिच्छा मोणं परिहरिथ जंति ।। ९२३ ।। दुध्याव अमुचिद्गपुप्फबई जाइसंकरादीदि । कदाणा वि व जीवा कुणरेसु जायते ।। ९२४ ॥ जिन लिङ्ग मायाविनो ज्योतिमंस्त्रोपजीविनः घनकांक्षिणः । अतिगाव संज्ञायुताः कुर्वन्ति ये परविवाहमपि ॥ ६२२ ।। दर्शन विराधका ये दोषं नालोचयन्ति दूषणका । । पश्चाग्नितपसः मिथ्याः परिहृत्य भूते ।। २७ ।। दुर्भावाशुचित पुष्पवतीजादिसङ्करादिभिः ।
कृतदाना अपि कुपात्रेषु जीवाः कुन रेषु जायन्ते ||२४|
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जिल | जिनलिङ्ग मायाविनो जिनलिङ्ग ज्योतिर्मवैखायुपजीविनो बिमलिङ्ग धनकशिरण जिन लिङ्ग ऋद्धियशः सातगारवयुक्ता: जिनलगे माहार भयमैथुन परिप्रहसंयुक्ताः ये जिनलगे पर विवाहं कुर्वन्सि ।। ६२२ ।।
सरप ये जिनलगे दर्शनविराधका ये व बिनलगे स्वदोषं मालोचयन्ति मे जिन लिगे परका: ये मिध्यादृय: पश्चातपसः ये मौनं परिहृत्य भुजते ॥ ६२३ ॥
भाष । दुर्भावनाच्या सूतकेन पुष्पवती संसर्गेण जातिसङ्करादिभिश्व ये कृतवानाः ये कुपात्रषु च कृतवानास्ते जोवाः कुनरेषु जायते ॥ ६२४ ॥
कुमनुष्य द्वीपों में कोल उत्पन्न होते हैं ? सो तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं
गाथार्थ :- जो जीव जिनलिङ्ग धारणकर मायावादी करते हैं, ज्योतिष एवं मन्त्रादि विद्याओं द्वारा आयोजिका करते हैं, घन के इच्छुक हैं, सीन गारव एवं चार संज्ञाओं से युक्त हैं, गृहस्थों के विवाह आदि करते हैं, सम्यग्दर्शन के विराधक हैं, अपने दोषों की आलोचना नहीं करते, दूसरों को दोष लगाते हैं, जो मिध्यादृष्टि पञ्चानि तप तपते हैं, मौन छोड़ कर आहार करते हैं तथा जो दुर्भावना, अपवित्रता, सूतक आदि से एवं पुष्पवती स्त्री के स्पर्श से युक्त तथा जातिसङ्कर आदि दोषों से सहित होते हुए भी दान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं वे जीव मरकर कुमनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ।। ३२२ - ६२४ ॥
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