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________________ ५०६ विक्षोकसाब पाथा । ९२२ से १२४ विशेषार्थ:-जो जीव जिनलिङ्ग धारणकर मायाचारी करते हैं। जिनलिप में ज्योतिष एवं मन्त्र आदि विद्याओं का प्रयोग र आजीविका ( आहारादि को) प्राप्त करते हैं । जिनविङ्गधारण कर धन के इच्छुक हैं । ऋद्धि यश और सात गारव से युक्त हैं। जिनलिङ्ग में आहार, भय, मथुन और परिग्रह संज्ञा से युक्त हैं तथा जो जिनलिंग धारण कर दूसरों के विवाह करते हैं (करवाते हैं)। जो जिनलिङ्ग में सम्यग्दर्शन के विराधक है । जो जिनलिन धारण कर अपने दोषों की आलोचना नहीं करते तथा जो जिनलिङ्गी होकर दूसरों को दूषण लगाते हैं । जो मिथ्याष्टि पश्चाग्नि तप तपते हैं तथा जो मौन छोड़ कर भोजन करते हैं। जो दुर्भावना मे, अपवित्रता मे, मृतकादि के सूतक से, पुष्पवनी के संसर्ग मे तथा विपरीत' कुलों का मिलना है लक्षण जिसका ऐसे जातिसंकर मादि दोषों से संयुक्त होते हुए भी दान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं वे सभी जीव कुमनुष्यों में उत्पन्न होते हैं।। इसी विषय का प्रतिपादन तिलोय पणतो के चतुर्थ महाधिकार में निम्न प्रकार से किया गया है :-- अविदा लेक कुमार निजि कमाई। सम्मत्ततवजुवाणं जे रिणगंथारण दूपणा देति ।। २५०३ ।। जे मायाचाररदा संजमतवजोगवजिना पाया । इड्डिरस सादगारवगरवा जे मोहमायणा ॥२५०४।। यूसुहमादिचार जे पालोचंति गुरुजण समावे। सज्झाय वदणाओ जे गुरुसहिदा ण कुवंति ।। २५०५।। जे छरिय मुगिसंघ वसंति एकाकिणो दुराचारा। जे कोहेण य कलह सम्वेसितो पकुठनंति ॥२५०६।।। आहारसमणसत्ता लोइकसाए जणिद मोहा जे । धरिऊरण जिण लिंग पावं कुवंति ने पोरं ॥२५०८।। जे कुवंति ण भत्ति अरहताणं तहेव साहूण । ज वच्छल्ल विहीणा चाउचमम्मि संघम्मि ॥२५०८॥ जे गेण्हंति सुवाप्पहदि जिलिंग धारिणो हिट्ठा । कण्णाविवाहपदि संजदरूपेण जे पकुम्वति ॥१५॥ जे भुजति विहीणा मोणेश घोरपाव संलग्ना । अण अगद रुव यादो सम्मत जे विणासंति ॥२॥१०॥ ते कालबसं पत्ता फलेए पावाणविसम पाकाणं । उपज्जन्ति कुरुवा कुपाणुमा चलहि दोसु॥२५१९॥ गाणार्थ :-जो लोग तीव अभिमान के पवित होकर सम्यारव और तप से युक्त साधुओं का फिश्चित भी अपमान करते हैं; जो दिगम्बर साघुमों को निन्दा करते हैं; जो पापी संयम, लपकविमायोग से रहित होकर मागचार में रत रहते हैं, जो ऋद्धि, रस और सात इन तीन गारवों से महान होते हुए मोह को प्राम है, जो स्थल व सूक्ष्म दोषों की आलोचना गुरुजनों के समीप नहीं करते हैं, जो गुरु के साथ स्वाध्याय व वन्दना कर्म को नहीं करते हैं; जो दुराचारी मुनि संघ को छोड़ कर एकाकी नि. सारहिन्यो . टोडरमल जी, पृ. ३१२ ।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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