SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिलोकसार गाथा : १८०-१८१ विशेषार्थ:- नारकियों के उपवाद स्थान नीचे की भूमि पर नहीं हैं। ऊपर के भाग में ऊंटादि की तरह संकरे होते हैं। अविक आरम्भ और अधिक परिग्रह नरकायु के बन्ध का प्रधान कारण है । इस अवस्था में जो आयुबन्ध करते हैं, वे जीव व जन्म लेकर घोरातिघोर दुःख भोगते हैं । के मुख अथ तेषामुपपादस्थानानां व्यासबाहुल्ये कथयति १८४ इगितिकोसोवास जोयणमवि जोयण' सयं जेडु | उडादीनं महलं सगदित्थारेहिं पंचगुणं ॥ १८० ॥ एक द्वित्रिकोश: व्यासः योजनमषि योजनशतं ज्येष्ठम् । उष्ट्रादीनां बाहुल्यं स्वकविस्तारेभ्यः पतगुणम् ॥१८०॥ इविवि । एकद्वित्रिकोश व्याप्ता योजनमपि एकद्वित्रियोजनानियोजनानां शतं । एतानि सप्तपृथ्वीनां यथासंख्येन ज्येप्रध्यासप्रमारणानि उष्ट्राद्य पपादस्थानानां बाल्यं स्वक विस्तारेभ्यः पचगुरणम् ॥१८०॥ उन उपपाद स्थानों का व्यास एवं बाहुल्य कहते हैं गाथार्थ:- ऊंट आदि आकारवाले उपपाद स्थानों का उत्कृष्ट व्यास ( चौड़ाई) क्रमश: एक कोस, दो कौस, तोन कोस, एक योजन, दो योजन, तीन योजन और सी (१००) योजन प्रमाण है तथा बाहुल्य (ऊंचाई) अपने अपने प्रमाण से पांच गुना है ।। १८०३। विशेषार्थ :- पहली पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक के उपपाद स्थानों का उत्कृष्ट व्यास ( चौड़ाई क्रमशः एक कांस, दो कोस, तीन कोस, एक योजन, दो योजन, तीन योजन ओर सो योजन प्रमाण है। तथा बाहुल्य अपनी अपनी शरीर अवगाहना मे पाँच गुणा है। अथोपपदस्यानेयुत्पक्षाः ककुर्वन्तीत्यत आह तोताले तदो चुदा भूतलम्हि तिक्खाणं । सत्याणमुपरि परिीय पुणोवि विडंति || १८१ ॥ अन्तमुत्तं काले ततश्च्युता भूतले दीक्ष्णानाम् । शस्त्राणामुपरि पतित्वा उड्डीय पुनरपि निपतन्ति ॥ १५१ ॥ अंतो । छायामात्रमेवार्थः ॥ १८९॥ उपपादस्थानों में उत्पन्न होने वाले जीव क्या करते है ? उसे बताते हैं पार्थ:- नारकी जीव अन्तर्मुहूर्त्त काल में उपपाद स्थान से च्युत हो नरक भूमि के तीक्ष्ण शस्त्रों पर गिरकर ऊपर उछलते हैं और पुनः उन्हीं पर गिरते हैं ।। १८१ ॥
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy