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________________ त्रिलोकसार गाथा ११२ गावार्थ :-- जगच्छ्रेणी का वर्ग जगत्प्रतर और जगच्छ्रेणी का घन घनलोक होता है। इस प्रकार जिसे संख्या का ज्ञान हो गया है, उसके लिए प्रकरणभूत लोक का वर्णन करते हैं ।। ११२ ।। विशेष :-- आठ प्रकार के उपमा प्रमाण में से पल्य और सागर के प्रमाण का कथन समाप्त हो चुका है। तथा सूध्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल और जगच्छ्रेणी का वर्णन "जगच्छ्रेणी का घन प्रमाण लोक है" इस कथन के प्रसंग में किया जा चुका है । १०८ जगच्छ्रेणी के वर्ग को जगत्प्रतर और उसी के धन को घनलोक कहते हैं। पल्य के समयों का प्रमाण हो पल्य है । दश कोड़ाकोड़ी पल्यों के समूह को सागर कहते हैं। पल्य के जितने अर्धच्छेद है, उतनी बार पल्य रखकर परस्पर गुस्सा करके जो राशि उत्पन्न हो, वही सूच्यंगुल है । जो एक अंगुल लम्बे क्षेत्र में जितने प्रदेश हैं, उतने प्रमाण है। सूच्यंगुल का वर्ग प्रतरांगुल है । जो एक अंगुल लम्बे और एक अंगुल चौड़े क्षेत्र के प्रदेशों के प्रमाण है। सूच्यंगुल के घन को घनांगुल कहते हैं । जो एक अंगुल लम्बे, एक अंगुल चौड़े और एक अंगुल ऊंचे क्षेत्र के प्रदेशों के बराबर है। 1 पल्य के छेदों के असंख्यातवें भाग प्रमाण घनांगुल स्थापन कर परस्पर गुणा करने से जगच्छ्रेणी की प्राप्ति होती है। जो मध्य लोक से ऊ एवं अधोलोक पर्यन्त सात राजू के प्रदेशों के प्रमाण है। जंगच्छ्रेणी के वर्ग को जगत्प्रतुर कहते है, जो जगच्छ्रेणी प्रमाण लम्बे और चौड़े क्षेत्र के प्रदेशों के प्रमाण हैं । इसी जगली के धन को जगत् घन या घनलोक फहते हैं, जो जगच्छ्रेणी प्रमाण लम्बे चौड़े और ऊंचे क्षेत्र के प्रदेशों के प्रमाण है अर्थात् ३४३ घन राजू प्रमाण है इसी की सिद्धि के लिए नीचे क्षेत्रफल एवं दक्षिणोत्तर व्यास को दर्शानेवाला मानचित्र दिया जा रहा है । ऊपर जो आकाश क्षेत्र के प्रदेशों द्वारा सूच्यंगुल आदि का प्रमाण बनाया गया है उसमें केवल प्रमाण से प्रयोजन है, प्रदेशों से प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार हमारे ( नेमिचन्द्राचार्य ) द्वारा जान लिया है संख्या का स्वरूप जिसने ऐसे शिष्य के लिये अब इससे आगे प्रकरणभूत लोक के प्रमाणादि को कहते हैं । लोक, जगच्छ्रेणी के घन स्वरूप है, इसकी सिद्धि करते हैं : [ सम्वन्धित चित्र पृष्ठ १०९ पर देखिये ] * t . ?
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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