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________________ २५२ निलोकसार पाया । ३६६ में से १२ योजन निकाल कर, वेदिका सम्बन्धी चारक्षेत्र के अवशिष्ट रहे ५३ योजन में नोड़ देने पर 1 +५२-३१)२ योजन प्रमाण वाला ६५ वा अन्तराल प्राप्त हो जाता है। इसके मागे पथ ध्यास फिर अन्तराल, पथभ्यास, अन्तराल इस प्रकार क्रम से बढ़ते हुए समुद्र सम्बन्धी चार मेत्र में १८४ वो पथ व्यास प्राप्त होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण पथ व्यास अर्थात् वीथियो १५४ हैं। एक एक बोथी में सूर्य के बिजाई देने का मानना है. मस: कोथिम में १८४ ही उदय हैं। उत्तरायण की व्यवस्था का प्रतिपादन करते हैं : लवण समुद्र में रविबिम्ब के प्रमाण सहित चारक्षेत्र का प्रमाण ३३०४६ योजन है। इसका समच्छेद करने पर योजन हमा । जबकि १५ योजन क्षेत्र की एक दिनगतिशलाका होती है; तब २०१० योजन क्षेत्र की कितनी दिनगति शलाकाएं होंगी। इस प्रकार पैराशिक करने पर = 38 = ११८१ दिनलिगलाकाएं हुई। दिनगति शलाकाओं का प्रमाण ११८ प्राप्त हुआ, इनमें एक कम विनगति शलाकाओं का प्रमाण ही उदय स्थानों का प्रमाण है। ११-१-११७ उदय स्थान है। बाय वीथी का उदय दक्षिणायन सम्बन्धी है, इसलिये एक घटा दिया गया है । अवशेष ३१० योजन की क्रिया पूर्ववत है। अर्थात् जबकि एक उदय स्थान कायोजन क्षेत्र है, उदय अंशों का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार पैराशिक करने पर 1 = योजन मात्र प्राप्त हमा। इसमें से १० योजन निकाल कर अगले पथ व्यास में देने से एक उदय स्थान हो जाता है। उत्तरायण में लवणसमुद्र के समस्त उदय स्थान ११७ में यह एक और मिला देने पर लवण समुद्र के उदय स्थान कुल ११८ प्राप्त हो जाते हैं। अवशिष्ट रहे (11-11) योजन मंत्र को अगले अन्तर के प्रमाण में दे देने पर समुद्र सम्बन्धी चार क्षेत्र समाप्त हो जाता है, तथा वेदिका के चार योजन क्षेत्र का भी पूर्वोक्त प्रकार राशिक करने पर एक उदय स्थान प्राप्त होता है और योजन शेष रहते हैं। इस योजन में से ५ योजन निकाल कर उपयुक्त हुए पोजनों में मिला देने पर (P+३)-३२ अर्थात दो योजन प्रमाण वाला अन्तर सम्पूर्ण हो जाता है। इस अन्तर के आगे एक दिनगति क्षेत्र में एक उदय होता है । तथा अवशेष रहे जो ३३ योजन उन्हें अगले पथ व्यास में देना चाहिये। इस प्रकार चार योजन प्रमाण वेदिकाक्षत्र भी समाप्त इमा। वैदिका के ( ४ योजन ) प्रमाण से रहित द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र का प्रमाण १७६ योजन है, इसमें से अभ्यन्तर पच व्याप्त योजन घटा देने पर ('--04:४८ )=te भाग शेष रहा । जबकि योजन क्षेत्र की एक दिनगति पालाका होती है, तब पोजन क्षेत्र
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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