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________________ त्रिलोकसारद पामा १००३ से १००३ बंदा सानि चंन्यासयानि पुनर्वन्नाभिषेकनर्तनसङ्गीत लोक मडपे तानि क्रीडनगुनगृहश्व विशालवर पट्ट्या लेश्च युतानि भवन्ति ॥ १०६ ।। ७५२ गावार्थ :- चनाओं के स्वमय स्तम्भ सोलह योजन ऊंचे और एक कोश चौड़े हैं। उन स्वर्ण स्तम्भों के अग्रभाग रश्नमय एवं मनुष्यों के नेत्र और मन को सुन्दर लगने वाले बहुत से नाना प्रकार के बजा रूप वस्त्रों एवं तीन छत्रों से शोभायमान हैं। उस ध्वजापीठ के आगे जिन मन्दिर है, जिनको चारों दिशाओं में नाना प्रकार के फूलों से एवं मणिमय और स्वर्णमय वेदियों से संयुक्त, सी योजन लम्बे, ५० योजन चांड़े और दश योजन गहरे चार द्रह है। इन ग्रहों के आगे जो वीथी ( मार्ग ) हैं उनके दोनों पापों में देवों के क्रीडा करने के मणिमय दो प्रासाद हैं, जिनकी ऊंचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन है। इन प्रासादों के आगे तोरण है। वे तोरण मणिमय स्तम्भों के अग्र भाग में स्थित, मोतोमाल और घन्टाओं के समूह से युक्त तथा जिनबिम्बों के समूह से रमणीक है। उनकी ऊँचाई पचास योजन और चौड़ाई पश्चीस योजन प्रमाण है। उस तोरण के आगे स्फटिकमय प्रथम कोट है । उस कोटद्वार के दोनों पार्श्व भागों में कोट के भीतर सौ योजन ऊंचे और ऊंचाई के अभाग प्रमाण अर्थात् ५ योजन चौड़े रत्ननिर्माति हो। जो कहा 1 था उसका अर्थ प्रमाण दक्षिणोत्तर द्वारों में ग्रहण करना चाहिए । वे दोनों मन्दिर बन्दना मण्डप, अभिषेक मण्डप नर्तन, संगीत और अबलोकन मण्डपों से तथा गृह, गुणन गृह (शास्त्राभ्यास आदि का स्थान ) और विशाल एवं उत्कृष्ट पट्टशाला से संयुक्त हैं ।। १००३ से १००६ विशेषार्थ :- उन ध्वजाओं के स्वर्णमय स्तम्भ १६ योजन ऊंचे और एक कोश चोड़े हैं । उन जाओं के स्त्रमय स्तम्भों के अग्रभाग रत्नमय एवं मनुष्यों के मन और नेत्रों को रमलीक लगने वाले, तथा नाना प्रकार के ध्वजा रूप वस्त्रों से युक्त बहुत सी ध्वजाओं और तीन छात्रों से शोभायमान है । सम्पूर्ण ध्वजा रत्नमय है । अर्थात् पुद्गल का ही परिणमन वस्त्र रूप हुआ है। इस ध्वजा पीठ के आगे जिनमन्दिर हैं, जिनकी चारों दिशाओं में विविध प्रकार के पहलों से एवं मणिमय और स्वमय वेदियों से संयुक्त, सौ योजन लम्बे ५० योजन बीड़े और दश योजन गरे चार द्रह हैं। इन द्रहों के का जो मार्ग है, उनके दोनों पार्श्व भागों में देवों के कोड़ा करने के मणिमय दो प्रासाद हैं जिनकी ऊंचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन है। इन प्रासादों के आगे तोरण है; जो मणिमय स्तम्भों के अग्रभाग में स्थित मोतीमाल और घण्टाओं के समूह से युक्त एवं जिनबिम्बों के समूह मे रमणीक हैं। उनकी कचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन प्रमाण है। उन तोरणों के आगे स्फटिकमय प्रथम फोट है। उस कोटद्वार के दोनों पार्श्व भागों में कोट के भीतर १०० योजन ऊंचे और ५० योजन चौबे, रत्ननिर्माति दो मन्दिर हैं । पूर्वद्वार में मण्डपादिक का जो प्रमाण कहा था उसका अर्थ प्रमाण शि और उत्तर द्वारों में ग्रहण करना चाहिए। वे दोनों मन्दिर वन्दना मण्डप अभिषेक मण्डप, रतन मण्डप,
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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