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त्रिलोकमार
पाथा : १८४-१८५ विशेषार्थः-पुराने नारको नवीन नारकी को देखकर अति कठोर शब्द बोलते हुए उसके पास माकर उसे मारते हैं । मारने से तथा शस्त्रों पर गिरने से जो घाव हो जाते हैं उन पर वे अत्यन्त खारा अल सींच सींचकर पोडा पहुँचाते हैं। अथ ते नुतनाः किं कुर्वन्तीत्यत आह
तेवि विहंगेण तदो जाणिद पुन्दावगरिसंबंधा। मसुंहापुहविक्किरिया इणंति हण्णंति वा तेहिं ॥१८४॥
तेपि विभङ्गने तत: जातपूपिरारिसम्बन्धाः ।
अशुभापृथग्विक्रिया मन्ति हन्यन्ते वा तः १८४॥ तेवि पि विभङ्गन सतः परं जातपूपिरारिसम्बन्धाः पशुभापृथग्aिiran सन्ता नन्ति परान् मयं हन्यन्ते या सरन्यैः ॥१४॥
नवीन नारको क्या करते हैं ? ऐसा पूछने पर कहते हैं--
पाया:-विभङ्गशान से पूपिर के वर का सम्बन्ध जानकर चे नवीन नारकी भी अशुभ और अपृथक् विक्रिया द्वारा उन्हें मारते हैं और उनके द्वारा स्वयं मारे जाते हैं ॥१४॥
विशेषार्थ:-नरकों में पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद कुअवधिज्ञान हो जाता है जिससे नए नारकी पूर्वापर का वैर दानकर पूर्वनारकियों को मारते हैं और उनके द्वारा स्वयं भी मार स्वाते हैं। अथापृथग्वि क्रियाकरणाप्रकारमाहु
वयवग्यपूगकागहिविच्छियभन्लूकगिद्धसुणयादि । मुलग्गिकोतमोग्गरयहुदी मगं विकृवान ।।१८।।
कव्याघ्रघूककाकाहिवृश्चिकभल्लूक गृध्रशुनकादि ।
पूलाग्निनु तमुद्गरप्रभृति स्वान वि कुर्वन्ति ।।१८।। गय । छापामानमेवाः ॥१५॥ ....... अपक्.विक्रिया करने का विधान कहते हैं
गाथा:-मारकी जीव अपने ही शरीर में भेडिया, व्याघ्र. घुग्घू, कोमा, सर्प, बिच्छु, रीछ, गिद्ध, कुत्ता आदि रूप तथा त्रिशूल, मग्नि, बरछी, मेल, मुद्गरादि रूप विक्रिया करते है ॥१५॥ ; : विशेषा:-नारकी जीव परस्पर दुःख देने के लिए अपने पारीर का व्याघ्रादि रूप सथा त्रिशूलादि रूप परिणमन कराकर नाना प्रकार के दुःख दूसरों को देते हैं और स्वयं भोगते हैं।