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गाथा: ३४४
ज्योतिलोकाधिकार
पूर्व दिशा के वाइन, दक्षिण दिशा के वाहन
योग
पश्चिम दिशा के । उत्तरदिशा के ' वाहन
वाहन बैल ४००० । घोड़े ४...
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भयाकाशे घरता कियनक्षत्राणां दिग्विभागमाह
उत्तरदाक्खिणउड्ढाधोमजके अभिजिमूलमादी य । भरणी किचिय रिक्सा चरं नि अवराणमेचं तु ।। ३४४ ।। उत्तरदक्षिणोधिोमध्ये प्रभिजिन्मूलस्वातिश्च ।
भरणी कृत्निका ऋक्षारिण चरम्ति अवराणामेवं तु ॥ ३४४ ॥ उत्तर । उत्तरवामिणोधिोमध्ये यथासंख्य प्रमिजिस्मूलस्वातिभरणिकृत्तिकाश्च ममत्राणि परन्ति । प्रवराण क्षेत्रान्तरगतानामभिजिवाविपश्चामामेवमेवावस्थितिः ॥३४४ ॥
आकाश में गमन करने वाले कुछ नक्षत्रों का दिशा-भेद कहते हैं :
पार्ष:- उत्तर, दक्षिण, अध्य, अधो और मध्य में कम से अभिजित्, मूल स्वाति भरणी और कृत्तिका नक्षत्र गमन करते हैं। क्षेत्रान्तर को प्रात होने वाले इन नक्षत्रों को ऐसी ही स्थिति है ।। ३४४ ॥
विशेषार्थ:-नक्षत्रों में से उत्तर दिशा में अभिजित् नक्षत्र का, दक्षिण में मूल नक्षत्र का, ऊपर स्वाति का, नीचे मरणी का और मध्य में कृत्तिका नक्षत्र का गमन होता है । क्षेत्रान्तर को प्राप्त होने वाले इन अभिजितादि पांच नक्षत्रों की ऐसी ही स्थिति है।
अथ मन्दर गिरेः कियद्रं गत्वा कथं चरन्तीत्यारेकायामाह