________________
त्रिलोकसाय
पाथा:१-६८१
देसा दुभिक्खीदीमारिकदेववाणलिंगिमदहीणा | भरिदा सदावि केवलिसलामपुरिसिड्डिसारहिं ।। ६८० ॥ देशा दुभिक्षेतिमारिकुदेववकलिङ्गिमतहीनाः ।
भृताः सदापि केवलिशलाकापुरुषधिसाधुभिः ॥ ६८० ॥ सा। विवेहल्या देशा भिक्षणातियपानावृष्टिमूषकशलमशुकत्यवाहपरवालक्षणसप्तविधे. तिमिः गोमाविमारिभिः कुदेवताभिरपिलिङ्गिमतश्च हीनाः सवापि केवलिभिः साकापुरुषः ऋद्धिसम्पन्न साधुभिता वर्तन्ते ॥ ६८० ॥
___गायार्थ :-विदेह देशों में दुभिक्ष, ईति. मारि रोग, देव, कुलिङ्ग और कुमतों का प्रभाव तथा केवलज्ञानी, तीर्थङ्करादि शलाका पुरुषों एवं साधुओं का निरन्तर सद्भाव रहता है ।।६८०॥
विदोषा:-विदेह स्थित देशों में कभी दुभिक्ष नहीं पड़ता। (१) अतिवृष्टि, (२) अनावृष्टि, {३) मूषक, ( ४ ) शलभ ( टिड्डी ), (५) शुक, (६) स्वचक और (.) परचक है लक्षण जिसका ऐसी सात प्रकार की ईतियाँ तथा गाय, मनुष्य आदि जिन में अधिक मरते हैं ऐसे मारि मादि रोग वहाँ कभी नहीं होते । वे देश कुदेव, कुलिङ्ग अर्थात् जिन लिग से भिन्न लिङ्ग और कुमत से रहित तथा केवलज्ञानियों, तीर्थङ्करादि शलाका पुरुषों और ऋद्धि सम्पन्न साधुओं से निरन्तर समन्वित रहते हैं। अथ तीर्थकृत्सकलचक्रार्धकिरणां पञ्चमन्दरापेक्षया अभन्योस्कृष्टसंख्यया वर्तनमाह
तिस्थद्धसलपचक्की सद्विसयं पुह बरेण भवरेण । वीसं वीसं सयले खेत्ते सचरिसयं वरदो ॥ ६८१ ॥ तीर्थाघसकलकिरणः षष्टिशतं पृथक वरेण अवरेण ।
विशं विशं सकले क्षेत्रे सप्ततिशतं वरतः ॥ ६८१ ॥ तिस्पड । तीथंकृत: प्रपंकिरणः सकलकिरणश्च पृथक् पृथगुम्कण्टेन षष्टपुत्तरं शतं १६. जघन्येन ते सोतासीतोपयोक्षिणोत्सरहटे एका इत्येका स्येकमन्दरापेक्षया बायार इति मिलिस्पा पवमवरविवहापेकष विशतिविशतिभवन्ति २० । तेच परत उत्कृष्टत: पञ्चमरतपश्चरावतमरियते सकले क्षेत्र सप्तस्युचरशतं १७० भवन्ति ।। ६८१॥
तीयङ्कर, चक्रवर्ती और अर्धचक्रवतियों की पञ्चमेरुओं की अपेक्षा जघन्योत्कृष्ट संध्या का प्रवर्तन कहते है।
गापापी-तीर्थकर, चक्रवर्ती और अर्धचक्री पृथक पृथक यदि एक एक देश में हों तो उत्कृष्टता से १६. होते हैं, और जघन्यता से ही होते हैं, तथा समस्त क्षेत्रों के मिलाकर उत्कृष्टतः १५. होते हैं ।। ६८१॥