SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२४ त्रिलोकसार सोधर्मादिद्वादशसु आनतारणकयुगेपि क्रमात् । देवानां मौलिचिह्न' वराहमृग महिषमत्स्या अपि ॥ ४८६ ॥ कूर्मो ददुरस्तुरगस्ततः कुखरः चन्द्रः सर्गः खड्गी च । लगलो वृषभः ततः चतुर्दशो भवति कल्पतरुः ॥ ४८७ ॥ सोही सौधर्माविषु द्वादशरूरूपेषु धानतयुगले पारयुगले व क्रमात् वेदान मौलि चिह्नानि वराहृमृगमहिषमस्या ॥ ४८६ ॥ कुम्मो | छापामात्रमेवार्थः ॥ ४८७ ॥ दो गाथाओं द्वारा सौधर्मादिदेवों के मुकुट चिह्न कहते हैं : गाथा : ४८६ से ४८५ - गावार्थ:-सौधर्मादि बारह स्वर्गों में, आनत युगल एवं आरा युगल में देवों के मुकुटों के चिह्न कम से बराह, मृग, महिय, मत्स्य, कछुआ, मेंढक, घोड़ा, हाथी, चन्द्रमा, सर्प, खड्गी, छपल, वृषभ और चौदहव कल्पवृक्ष है ।। ४८६ ४८७ ॥ विशेषार्थ :- सौधर्मादि बारह कल्पों के १२ स्थान, आनत युगल के १३ वें और आरण युगल के १४ वें स्थान के इन्द्रों के मुकुटों के चिह्न कम से बराह, (सूकर ) मृग, भंसा, मत्स्य, कछुआ, मेंढक, घोड़ा, हाथी, चन्द्रमा, सर्प, खड्गी, छगल ( बकरी ), बैल और कल्पवृक्ष है । साम्प्रतमिन्द्राणां नगरस्थानं विस्तारं च गाथाद्वयेनाह - सोहम्मादिचउक्के जुम्मचक्के य सेमकप्पे य । सगदे विजुदिदाणं णयराणि हवंति नवयपड़े || ४८८ ।। सौधर्मादिचतुष्के युग्मचतुष्के च शेषकल्पे च । देवी सुतेन्द्राणां नगराणि भवन्ति नवकपदे ॥ ४८८ ॥ सोहम्मादि। सोधर्माविचतुष्के ब्रह्मादियुग्मके मामताविशेषकल्पे व धानतावीर्मा नगरेषु प्रत्येकं विशतिसहस्रयोजनव्यास साधारणात्कल्प चतुष्टयमेकं स्थलं कृतं इति नवसु स्थानेषु स्वस्वदेबी ते नवराणि सवन्ति ॥ ४८ ॥ दो गाथाओं द्वारा इन्द्रो के नगर स्थान और विस्तार का वर्णन करते हैं :-- गाथार्थ :- सौधर्मादि चार कल्पों के चार, ब्रह्मादि चार युगलों के चार और आनतादि अवशेष कल्पो का एक, इस प्रकार इन नौ स्थानों में अपनी अपनी देवाङ्गनाओं से युक्त इन्द्रों के नगर हैं || ४८८ || विशेषार्थ :---- सौधर्मादि चार कल्पों के चार स्थान ब्रह्मादि चार युगलों के चार स्थान और आनतादि कल्कों के नगरों में प्रत्येक नगर बोस हजार योजन व्यास की समानता वाला है, अत: इनका एक स्थान इस प्रकार कुल नौ स्थानों में अपनी अपनी देवाङ्गनाओं से युक्त देवों के नगर है ।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy