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त्रिलोकसार
गाथा : १२४-१२५०
____ विशेषार्थ :-वृक्ष की छाल जिस प्रकार सम्पूर्ण वृक्ष को वेषित किए होती है उसी प्रकार सम्पूर्ण लोक को वेष्टित करने वाले तीन वानवलय हैं। १. धनोदधिवात बलय २ धनवातवलम और ३. तनुवातब लय । घनोदधिवानवलय गाय के मूत्र महा वर्णवाला है। धनवातवलय मूग ( अन्न ) के मइश वर्गवाला है और ननुवान वलय अनेक प्रकार के रङ्गों को धारगा किए हुए है। अथ नदायूनां बाहुल्यनिर्णयाश्रमाह
जोयणवीमसहम्मं बहलं वलयनयाण पत्तेयं । भृलोयतले पासे हेडादो जाब रज्जुत्ति ||१२४।। योजनविधमहन बाहान्यं वल यत्रयाणां प्रत्येकम् ।
मुलतले - जबता 1 जुनि १२४ जोपण । योजनविशतिसहस्र माहत्यं बलपत्रमाण प्रत्येकम भवेत् । कुत्र कुहिये। भुगी तले लोकताले पार्वे प्रस्तावाववेका रज्जुस्तापत ॥
उन वातवलयों के बाहल्य का निर्णय करने के लिए कहते हैं :
गायाप:-लोकाकाश के अधोभाग में, दोनों पावभागों में नीचे से लगाकर एक राजू की ऊँचाई पर्यन्त तथा आठौं भूमियों के नीचे तीनों वातवलय (प्रत्येक ) बीस बीस हजार मोटाई वाले हैं ॥१२४॥
विशेषार्थ :-लोकाकास के अघोभाग में, दोनों पार्श्व भागों में नीचे में एक राजू ऊंचाई पर्यन्त अर्थात नियाद स्थान तक एवं आठों भूमियों के नीचे नीनों वातवलय बीस बीस हजार मोटे है । अथोपरिमवायुबाहुल्यनिर्णयाधमाह
सचमखिदिपणिधिम्हि य मग पणचचारिप णचउकतियं । तिरिये बम्हे उड्ढे अचमतिरिए च उचकमं ॥१२॥ सप्रमझिलिप्रणिधौ च सन पद्ध चतुष्क पश्च चतुटकं त्रिकम् ।
निरश्चि ब्रह्मे ऊः सप्तमतिरश्चि च उक्तनमः ।।१२५।। सत्तम । सतमक्षितिसमीपे च वायुबयाणां यथासंख्येन सप्त ७ पक्ष ५ ष्क शल्यं, तिर्यकशितिपरिणको पंच चतुष्क त्रिकं बाहुल्यं । ब्रह्मलोकोऽयंलोकमरिणषो पुर: सप्तमतिक्षितो उक्तकमः । इवानों सप्तममितिमारभ्य तिरंगभूमिपर्यन्तं मध्यमितोमा हानि - मुह १२ भूमोरा १६ विशेसे ४ उसय ६ हृतेत्याविना हानि मानीय मूमौ १६ एकं निहास्य १५ समधिने तस्मिन् तवानि इफेट
१ बाहस्पं ( म०)। २ महम क्षितिसदृशे ( म.)।