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________________ त्रिलोकसार माथा : ३२ अथ तत्कृतगर्ने भृते सति कि जातमित्यत्राह-- चिदिए वारे पुण् गहिदमिति सहा पुणरपि णिक्खि विदव्या अबरेगा सरिसवाण सला ।। ३२ ।। द्वितीये बारे पुणं अनवस्थितमिसि शलाकाकुपडे । पुनरपि निक्षेप्तव्या अवरका सर्वपाणां गलाका ॥ ३२ ॥ विदिए। विसोये वारे पूर्ण प्रमत्यिसकुण्डमिति शलाकागतं पुनरवि मिक्षेप्सम्या पपरका सर्वापारण शलाका ॥ ३२॥ दूसरा अनवस्था कुण्ड भरने के बाद क्या करना चाहिये १ उसे कहते हैं : गाथार्थ :-दूसरी बार बनाये हुये अनव स्थित कुण्ड को पूर्ण भरकर पुन: एक दूसरी शलाका स्वरूप सरसों शलाका कुण्ड में डालना चाहिये ॥ ३२॥ विशेषार्थ:-द्वितीय बार बनाये हमे अनवस्थित कुण्ड को पूर्ण भरकर पुनः एक दूसरी शलाका स्वरूप सरसों गलाका कुण्ड में डालना चाहिये । जैसे-मान लो ।-प्रथम अनवस्था कुण्ड १० सरसों से पूर्ण भरा गया था। एक एक द्वीप समुद्र में एक एक दाना डालने पर १० वें क्षीरवर समुद्र पर दाने समाप्त हो गये, अत: सुमेरु के पूर्व में जम्बूद्वीप का अर्घ भाग ३ लाख योजन+२ लाख लवण समुद्र+ ४ लाख धातको खण्ड+८ लाख कालोदक समुद्र+१६ लाख पुष्करवर द्वीप+३२ लाख मो० पुष्कर वर समुद्र + ६४ वारुणीवर द्वीप +१२८ लाख वारुणीवर समुद्र+२५६ लाख योजन क्षीरवर द्वीप+५१२ लाख योजन क्षीरवर समुद्र -- १०२२ लाख योजन सुमेरु के पूर्व में और १०२२३ लाख योजन हो सुमेरु के पश्चिम में है अत: सम्पूर्ण व्यास (१०२२३+१०२२३)-२०४५ योजन व्यास प्राप्त हुमा । जैसे: [ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये |
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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