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________________ ६१ विलोफसा गाषा: 01-950 अथ भरतरायतक्षेत्रेषु कालवतनक्रम प्रतिपादयति भरहेसुरेखदेस य ओसप्पुस्सप्पिणिपि कालदुगा । उस्सेधाउवलाणं हाणीबड्डी य होतिचि ॥ ७७९ ॥ भरतेषु ऐरावतेषु च अवसर्पिण्युत्सपिणीति कालद्वयं । उन्सेषायुबलानां हानिवृद्धी च भवत इति ।। ७७६ ॥ भरहे । पञ्चमरतेषु पर्श रावतेषु पावसपिणपुरसपिणीति मालवयं वर्तते । तरपीवानामुत्सेपापुर्वलानां ययासंख्यं हानिधी मयत इति मातम्यं ॥ ७७६ ॥ अब भरतैरावत क्षेत्र में कालवतेन क्रम का प्रतिपादन करते हैं। पाया:-पञ्च मेरु सम्बन्धी पाच भरत पोर पांच ऐगपत जेत्रों में अवसपिसी सोय उत्सपिणी नाम के दो काल वर्तते हैं। इन क्षेत्रों में स्थित जीवों के शरीर की ऊंचाई, प्रायु और बल की क्रमशः अवसपिणी काल में हानि और उत्सपिणी काल में वृद्धि होती है, ऐसा जानना चाहिए || ७७९ ।। थकालनुयभेदानां संज्ञाः कथयति सुसमसुसमं च मुसमं सुसमादी अंतदुस्समं कमसो ! दुस्सममतिदुस्सममिदि पढमो पिदियो दु षिवरीयो ।।७८०|| सुषमसुषमः च सुषमः सुषमादिः अन्तदुःषमः कमशः । दुषमा अतिदुःषम इति प्रथमः द्वितीयस्तु विपरीतः ॥ ७० ॥ सुसम । १ सुषमसुषमः २ सुषमः ३ सुषमःषमः ४ कुषमसुषमः ५ दुःषमः ६ प्रतिषमः इति मेण प्रथमोऽवतपिरणीकाला पड़मेवः। द्वितीय उत्सपिरतीकालः एतत परीत्येन षड्भेः ॥ ७० ॥ दोनों कालों के भेद एवं नाम कहते हैं। पाचार्य :-प्रथम अवसर्पिणी काल सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादुःषमा, दुःषमा-सुषमा, दुःपमा और अतिदुःषमा के नाम से ६ भदवाला है, तथा दूसरा उत्सपिणी काल इससे विपरीत कम पाला है ॥ ७० ॥ विशेषार्थ :-प्रथम अवसर्पिणी काल कम से सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुःषमासुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा के नाम से छह भेद वाला है। तथा उत्सपिणी काल भी कम से अतिदुःषमा, दुःषमा, दुःषमासुषमा, सुषमादुःषमा, सुषमा और अतिसुषमा के भेद से छह प्रकारका है।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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